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समारोह और संदेश

रजत जयंती समारोह और विजय रथ यात्रा दोनों सपा के अहम कार्यक्रम थे। चुनाव के कुछ समय पहले पार्टियां ऐसे अवसरों की तलाश में भी रहती हैं। संयोग से समाजवादी पार्टी की रजत जयंती भी थी। इसके अड़तालीस घंटे पहले विजय रथ यात्रा आयोजित की गयी। एक में सत्ता और दूसरे में संगठन की प्रतिष्ठा दांव पर थी। सामान्य स्थिति में सामूहिक प्रयासों से इस प्रकार के आयोजन होते हैं। अलग-अलग होने के बावजूद ये किसी पार्टी की संयुक्त रणनीति को जमीनी स्तर पर आगे बढ़ाने वाले साबित होते हैं लेकिन सपा के आन्तरिक हालात ने इन्हें शक्ति प्रदर्शन का रूप दे दिया। ये बात अलग है कि दोनों मौकों के मंच पर दिग्गज साथ-साथ दिखाई दिए। सामान्य शिष्टाचार के निर्वाह का भी प्रयास हुआ, किन्तु तल्खी छिपी न रह सकी। दूसरे शब्दों में कहें तो तल्खी छिपाने का प्रयास भी नहीं किया गया। सामान्य दिखने की कोशिशों के बीच दोनों खेमों का दर्द छलक ही पड़ा।

यदि भीड़ को सफलता का एकमात्र पैमाना मानें तो दोनों समारोहों को सफल माना जा सकता है। रथ यात्रा पहले आयोजित की गयी। इसे देखकर लगा कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बाजी मार ली है। इसमें भारी भीड़ जुटी। इस समाजवादी यात्रा में बेशुमार वाहन थें यह माना गया कि अखिलेख ने संगठन के मुकाबले निर्णायक बढ़त बना ली है। यह रजत जयंती समारोह के आयोजकों के लिए चुनौती भी थी। लेकिन सपा के प्रदेश अध्यक्ष भी पीछे नहीं रहे। रजत जयंती समारोह में भीड़ जुटाकर उन्होंने अघोषित शक्ति प्रदर्शन को लगभग बराबरी पर पहुंचा दिया। वैसे अधिकृत रूप से इसे शक्ति प्रदर्शन मानने से इंकार किया गया। यह बताया गया कि सपा परिवार में कोई समस्या या मतभेद नहीं है। परिवार और पार्टी एकजुट हैं लेकिन दोनों कार्यक्रमों की तैयारियों, भावनाओं और विचार अभिव्यक्ति ने वास्तविकता सामने ला दी थी। रथ यात्रा की तैयारियों की जिम्मेदारी उन्हें दी गयी जिन्हें संगठन ने बर्खास्त कर दिया था। मतलब जिन्हें संगठन ने पार्टी विरोधी गतिविधियों में संलिप्त और अनुशासनहीन माना, उन्होंने रथ यात्रा को सफल बनाने की जिम्मेदारी उठाई। जिन मंत्रियों पर मुख्यमंत्री का अविश्वास था उन्होंने रजत जयंती समारोह को सफल बनाने में पूरी ताकत लगा दी। रथ यात्रा में पार्टी से बर्खास्त नेताओं का और रजत जयंती समारोह में सरकार से हटाए गए नेताओं का जलवा था।

रजत जयंती समारोह में सबसे ज्यादा सक्रिय वह मंत्री दिखाई दिए जो मुख्यमंत्री को नापसन्द बताए जाते हैं। कुछ समय पहले उन्हें बर्खास्त किया गया था लेकिन पारिवारिक दबाव में उन्हें पुन: मंत्री बनाना पड़ा। शायद इसीलिए समारोह में अखिलेश यादव ने शायराना अंदाज में अपनी व्यथा बयान की तलवार देते हो और चलाने भी नहीं देते। रजत जयंती समारोह में इन्हीं मंत्री ने अखिलेश को तलवार भेंट की थी। अखिलेश का इशारा किस ओर था इसका अनुमान लगाया जा सकता है। उन्होंने राममनोहर लोहिया के एक कथन का उल्लेख किया। इस माध्यम से बताने का प्रयास किया कि कुछ लोग पार्टी को खत्म करना चाहते हैं। यहां भी अखिलेश का इशारा किस ओर था उसे समझा जा सकता है। क्योंकि जब तक अखिलेश मुख्यमंत्री होने के साथ प्रदेश अध्यक्ष भी थे तब तक वह ऐसी बात नहीं करते थे। उनका तंज बदले माहौल पर था। इसी प्रकार प्रदेश अध्यक्ष ने भी अपनी व्यथा बताई। कुछ लोगों को भाग्य से सब कुछ मिलता है-का इशारा किसकी तरफ था इसे सभी ने समझा। उन्होंने अपने विभागों के कार्यों की प्रशंसा की। यह उन्हें मंत्रिमण्डल से बर्खास्त करने पर अपरोक्ष सवाल था।

स्पष्ट है कि आपसी मतभेद न तो छिप सके, न उन्हें बहुत छिपाने का प्रयास किया गया जिसको बोलने का अवसर मिला उसने इशारों-इशारों में बहुत कुछ कह दिया। एक नेता को खुद प्रदेश अध्यक्ष ने बोलने से रोक दिया यह बिना बोले किया गया इशारा था। वैसे दोनों समारोहों की पंच लाइन मुखिया मुलायम ने कही। उनका कहना था कि सपा की स्थापना जमीन कब्जिाने या लूट खसोट के लिए नहीं की गयी थी। रजत जयंती वर्ष में सपा इसी लाइन पर आत्मचिंतन कर ले तो सार्थक होगा। मुलायम सिंह ने पार्टी के सभी लोगों को आत्मचिंतन का बड़ा विषय दिया है।

राजनीतिक पार्टियों के प्रत्येक कार्यक्रम का वास्तविक मूल्यांकन का एक विशिष्ट आधार भी होता है। इसके तहत यह आकलन किया जाता है कि आम जनता पर उक्त कार्यक्रमों का कितना प्रभाव पड़ा। विजय रथ यात्रा में विकास को मुद्दा बनाया गया। रजत जयंती में महागठबंधन सर्वाधिक चर्चित मुद्दा बन गया। चुनाव में प्रत्येक सरकार के कार्यों व उपलब्धियों पर मतदाता विचार करते हैं। इसलिए विपक्ष और सत्ता पक्ष की यात्राओं में बड़ा फर्क हो जाता है। विपक्ष का दायरा बड़ा होता है। वह सरकार की आलोचना करता है, वादे-दावे करता है लेकिन सत्ता पक्ष जो दावे करता है, वह जमीन पर दिखने भी चाहिये। यदि वह विकास का दावा करता हो अपनी सरकार सर्वश्रेष्ठ बताता हो, सभी वादे पूरे कर लेने का आत्म विश्वास दिखाता हो, तो ये बातें जमीन पर दिखनी चाहिये। आम मतदाता का इनसे सहमत होना महत्वपूर्ण होता है। रजत जयंती समारोह में यदि देवगौड़ा, लालू यादव, शरद यादव, अजीत सिंह आदि नेताओं को न बुलाया जाता तो सपा के ज्यादा हित में होता। तब सपा अपने पच्चीस वर्षों पर ज्यादा बेहतर ढंग से विचार विमर्श कर सकती थी। उत्तर प्रदेश में महागठबंधन की बातों का कोई औचित्य नहीं है। दूसरे दल के नेताओं ने अपने स्वार्थों की बात कही।

देवगौड़ा, लालू, शरद, अजीत जब एक मंच पर आए तो आपसी अविश्वास की तस्वीरें ताजा हो गयीं। लालू की वजह से मुलायम प्रधानमंत्री नहीं बन सके थे। मुलायम की यह व्यथा आज तक कायम है। देवगौड़ा की पार्टी तीन वर्ष तक कर्नाटक में भाजपा के साथ गठबंधन सरकार चला चुकी है। तब उनके पुत्र मुख्यमंत्री थे और भाजपा तब साम्प्रदायिक नहीं थी। शरद यादव सत्रह वर्ष भाजपा के साथ गठबंधन में रहे, अब केवल नीतीश के दूत की हैसियत में हैं। अजीत सिंह की पार्टी का वजूद दांव पर है। वह गठबंधन के लिए बेकरार हैं। किससे गठबंधन होगा कब तक चलेगा, वह भी नहीं जानते। ऐसे नेता सपा को लाभ नहीं पहुंचा सकते। यहां उनके अपने कार्य ही चुनावी मुद्दा बनेंगे।

Updated : 10 Nov 2016 12:00 AM GMT
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