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फार्म की मछलियां रहती हैं संक्रमित

समुद्री जूं जैसे परभक्षी, वाइरस, हैवी मेटल, रसायन, एंटीबायटिक अवशिष्ट और एंटीबायटिक प्रतिरोधी बैक्टीरिया कुछ ऐसे उपहार हैं जो फार्मड मछली को खाने पर आपको मुफ्त मिलते हैं।
एक आम एक्वाकल्चर सुविधा में मछली के अंडों को हैचरी में बड़ा किया जाता है। जवान मछलियों को फिर जालियों द्वारा मुख्य भूमि से अलग किए गए समुद्र के स्थलीय तालाबों या खंडों में स्थानांतरित किया जाता है।
उत्पादन तथा लाभ में वृद्धि करने के लिए इन बाड़ों में मछली के घनत्व को काफी अधिक रखा जाता है - वस्तुत: इन मछलियों के स्वामी तब तक मछली को ठूंस कर खिलाते रहते है जब तक कि वे मरने न लग जाएं। 10 प्रतिशत मृत्यु स्वीकार्य है। मरने वालों की संख्या 30 प्रतिशत से अधिक होने पर ही इनको इकट्ठा किए जाने को रोका जाता है। मछलियों की भीड़-भाड़ इतनी अधिक होती है कि वे पोल्ट्री के चिकन जैसी दिखती है जो अपने पंख भी नहीं हिला सकते तथा मारे जाने तक ए4 आकार के कागज जितने पिंजरे पर एकत्रित होकर बैठे रहते है। एक 2.5 फुट लंबी सलमॉन को उसके समूचे जीवन में केवल 4 फुट पानी दिया जाता है - यह मछली सामान्यत: एक दिन में सैकड़ों मील तैरती है तथा छोटे बांधों पर भी चढ़ सकती है। ट्राउट फार्म और भी अधिक भीड़-भाड़ वाले होते है - 4 फुट के स्थान में 27 मछलियां।
जैसे कि बच्चों को भीड़ भरे बोर्डिंग स्कूलों में जूं हो जाती है, पहली समस्या मछली के जूं की है। 559 प्रकार की समुद्री जूं है। ये समुद्री पैरासाइट है जो मछली के म्यूकस, त्वचा टिश्यु तथा रक्त को खाती है। वयस्क मादाएं 1000 अंडे प्रत्येक की 6-11 अंडों की लडिय़ां देती है। समुद्री जूं एक से दूसरी मछली में जाती रहती है।
अत्यधिक भीड़ वाली स्थितियों में समुद्री जूं किसी मछली के मुख की हड्डी तक खा लेती है। जूं के स्केल खाने पर शरीर पर घाव दिखने लगते हैं और मछली इतनी बीमार हो जाती है कि वे अन्य रोगों के प्रति संवेदनशील बन जाती है। मछली को मारे जाने के पश्चात भी जूं उस पर बनी रहती है। यह समस्या समूचे संसार में फार्म वाली मछलियों में मौजूद होती है। वर्ष 2012 में कनाडियाई ग्रॉसरी चेन सोबी को मछली में समुद्री जूं पाए जाने के पश्चात अपनी दुकानों से सारी मछलियों को हटाना पड़ा था। स्कॉटलैण्ड में सरकारी निरीक्षणों ने ऐसे फार्म पाए जहां प्रति मछली कम से कम 44 जूं पाई गई थी। आइरिश ’’आर्गेनिक’’ फार्मों ने फार्म में पाली गई प्रति सलमॉन पर 54-71 के मध्य समुद्री जूं पाई जो सरकार द्वारा अनुमेय अधिकतम से 5 गुणा अधिक था। जरा कल्पना कीजिए कि भारत में क्या होता होगा जहां फार्मों की कोई जांच नहीं की जाती है और मछलियों को सडक़ के किनारों पर बेचा जाता है।
मानव के सिर पर पस भरे हुए छाले या फोड़े स्टेफाइलोकोकस औरियस नामक एक बैक्टीरियम द्वारा किए जाते है। गंभीर इन्फेक्शन में, व्यक्ति को बुखार, सूजे हुए लिम्फ नोड तथा थकान हो सकती है। फ्यूरनक्यूलोसिस बैक्टीरिया को समुद्री जूं में भी पाया गया है।
मछली फार्म इस समस्या से निपटते है - तालाब में मछली की संख्या घटा कर नहीं, बल्कि पानी में डाले जाने वाले विषैले कीटनाशकों को बढ़ा कर। पिछले 10 वर्षों में इन जहरीले रसायनों का उपयोग 10 गुना बढ़ा है। समुद्री जूं के नियंत्रण हेतु दी जाने वाली दवाओं में आर्गेनोफॉस्फेट शामिल है जो मानवों में कैंसर करता है। डाइक्लोरवौस का उपयोग कई वर्षों हेतु किया गया था और इसे एजेमेथीफोस से प्रतिस्थापित किया गया। दोनों मछली में परिवर्तन लाते हंै। साइपरमेथरीन और डेल्टामेथरीन समुद्री जूं को नियंत्रित करने के लिए आमतौर पर उपयोग किए जाने वाले दो पाइरेथरॉइड है। मानवों में यह सांस लेने में कठिनाई, कंपन, समन्वय का अभाव, धब्बे, वीर्य की मात्रा में कमी और वक्ष कैंसर करते हैं। प्रयोग की जाने वाली मुख्य दवाएं एवेरमैक्टिन है जिसमें आइवरमेक्टिन तथा इमामेक्टिन बेन्जोइट शामिल है। चूंकि ये मानवों हेतु जहर है इसीलिए मछली फार्मों को मछली को मारने से 175 दिन पहले इसे बंद करना होता है। पर कौन गिनती करता है?
एमीबिक गिल रोग अधिकांश मछली फार्मों में एक प्रमुख समस्या है। यह एमीबा नियोपैरामीबा परयुरान द्वारा किया जाने वाला एक संभाव्य घातक रोग है। मृत्यु दर को कम करने के लिए मवेशियों पर से कीड़े को हटाने (और मानवों में कैंसर-रोधी दवा के तौर पर) के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले लेवीमासोल के प्रति मिलियन में दसवें हिस्से को पानी में मिलाया जाता है। क्लोरामाइन तथा क्लोरीन डाइऑक्साइड का भी उपयोग किया जाता है।
चूंकि अब मछलियां अधिक संख्या में और रसायनयुक्त पानी में रखी जाती है, वे शारीरिक तौर पर इतनी थकी हुई होती है कि उनकी प्रतिरक्षा प्रणालियां कमजोर होती है और उनमें हर प्रकार के संक्रमण की संभावना बनी रहती है। वे एक-दूसरे से तथा पिंजरों की साइडों पर रगड़ खाती है - जैसा कि पिजड़े में चिकन करते है -और इस प्रक्रिया में उनके फिन क्षतिग्रस्त हो जाते है तथा उनमें संक्रमण होता है। एक्वाकल्चर ऑपरेटर रोग को नियंत्रित करने के लिए काफी प्रभावशाली एंटीबायटिकों का उपयोग करते है (किसी स्थलीय मछली तालाब से खाई जाने वाली प्रत्येक मछली के पीछे सैकड़ों मरती हैं। मरने का सामान्य अनुपात फिन वाली मछली हेतु 20 प्रतिशत, श्रिम्प हेतु 40 प्रतिशत और मोलास्क हेतु 50 प्रतिशत है)। एंटीबायटिक के साथ सबसे अधिक उपचार किए जाने वाली मछली के संक्रमणों में त्वचा के अल्सर, डायरिया तथा रक्त सेपसिस शामिल है। इन संक्रमणों के लिए उत्तरदायी होने वाले सूक्ष्मजीव उन बैक्टीरियल परिवारों से संबद्ध है जो मानवों में भी संक्रमण करते हैं।
इन एंटीबायटिकों को भोजन, स्नान और इंजेक्शन के रूप में दिया जाता है। ऑक्सीटेट्रासीक्लाइन और फ्लूमेक्यून की एक असीमित मात्रा का उपयोग किया जाता है और यह शरीर में बनी रहती है। एक अध्ययन में ट्राउट तथा सी-बास फार्मों में प्रति हचजी में 578.8 मिलीग्राम तक पाए गए थे। भारत में श्रिम्प फार्मों में संभवत: इससे भी अधिक होगा।
एक्वाकल्चर में रोगनिरोधक या उपचारात्मक प्रयोजनों हेतु प्रयोग किए जाने वाले एंटीबायटिक अक्सर जलीय पशुओं के टिशु में जम जाते हैं। इन दवा अवशिष्टों से मछली खाने वालों में एलर्जी, विषैले प्रभाव, आंत के सूक्ष्मजीवी जंतुओं में परिवर्तन होते है। मानवों द्वारा उपभोग किए जाने वाले भोजन में क्लोरमफेनीकोल के अवशिष्ट एप्लाटिक एनीमिया में परिणत हो सकते हंै जो अत्यधिक गंभीर बोन मैरो रोगों में परिणत होता है। निट्रोफुरान एंटीबायटिक कैंसर करने वाले के रूप में जाने जाते हैं।
रसायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों का उपयोग मछली फार्मों में व्यापक रूप से किया जाता है। उर्वरक का उपयोग मछली भोजन की वृद्धि के लिए किया जाता है और वह मछली के शरीर में बना रहता है। पिसीसाइड एक मछली जहर है जिसका उपयोग किसी जलराशि में मौजूद मछली की प्रभुत्व वाली प्रजातियों को समाप्त करने के लिए किया जाता है, क्योंकि जलराशि में आबादी बढ़ाने के प्रयास में पहला कदम उसमें एक भिन्न प्रकार की मछली डालना है। उनका उपयोग पैरासाइटों से लडऩे के लिए भी किया जाता है। रोटेनोन, सैपोनिन्स, टीएफएम, निकलोसमाइड तथा एंटीमाइसिन ए जैसे पिसीसाइड का उपयोग भारत में विशेष रूप से श्रिम्प तालाबों में किया जाता है। फार्मलीन तथा मैलाचाइट ग्रीन भी ऐसे ही है जो आमतौर पर विसंक्रामक के रूप में प्रयोग में लाए जाते हैं। मैलाचाइट ग्रीन से कैंसर, शारीरिक विकृतियां तथा फेफड़े खराब होते हुए देखे गए हैं।
पिछले 15 वर्षों में मछलीपालन तिगुना हो गया है। समूची मछलियों के 40 प्रतिशत का प्रजनन कृत्रिम रूप से किया जाता है। क्या आप उन्हें खाने का जोखिम उठाना चाहते हैं?

Updated : 23 Nov 2016 12:00 AM GMT
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