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नरेन्द्र मोदी बने दुनिया के सबसे लोकप्रिय राजनेता

नरेन्द्र मोदी बने दुनिया के सबसे लोकप्रिय राजनेता
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भ्रष्टाचार के खिलाफ क्रांतिकारी ‘‘अवतार’’ के रूप में अपने को स्थापित करने के लिए अतिशय अतिक्रमणकारी कृत्यों के कारण अपनी चमक को बनाए रखने के लिए ‘‘बेजोड़’’ बने रहने के अंदाज वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को अति अतिक्रमणकारी के रूप में उभरकर बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पीछे छोड़ दिया है। समस्याओं की व्याख्या करने में लम्पट शब्दावली और अपने को संविधान, संसदीय मर्यादा तथा प्रशासनिक एवं न्यायालयीन व्यवस्थाओं से ऊपर समझने वाले केजरीवाल को ममता बनर्जी ‘‘सेना से घेरेबंदी’’ का आरोप लगाकर अमर्यादित आचरण से अपने को स्थापित करने के अभियान में कहीं आगे निकल गई हैं। अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ देशव्यापी जागरण का अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए अपहरण कर दिल्ली की सत्ता पाने में केजरीवाल को मिली सफलता ने उन्हें देश का नेतृत्व करने का जो स्वप्न दिखाया, उससे अभिभूत सत्ता में रहकर भी विपक्ष की जिस भूमिका ने देश का सबसे बड़ा बड़बोला ढपोरशंख करार देने का अवसर प्रदान किया, ममता बनर्जी ने वामपंथियों के अत्याचार से त्रस्त बंगाल को राहत प्रदान करने के बाद उसी भूमिका में बने रहने की प्रेरणा दी है। उन्होंने नरेंद्र मोदी सरकार को डाकू की सरकार और सेना के नियमित संचालन को घेराबंदी की संज्ञा प्रदान कर यह स्पष्ट कर दिया है कि कांग्रेस की विकल्प बने रहने की संभावना क्षीण होने के बाद वे केंद्रीय रंगमंच पर मुख्य अभिनेता के समान अवतरित होने के लिए मोदी पर उनके राजनीतिक जीवन पर लगाए जाने वाले लम्पट आरोपों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। यदि केंद्रीय सरकार (मोदी) डाकू है तो क्या सेना डकैतों का गिरोह। ममता बनर्जी की महत्वहीन अभिव्यक्ति का तो यही अभिप्राय हो सकता है। इस अभियान में जो भी उनका साथ नहीं देगा वह गद्दार है, यह पटना की फ्लॉप रैली में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को लक्ष्यवाद कहने के बाद स्पष्ट हो चुका है कि यह फेहरिस्त अभी और लंबी होने वाली है। जिस प्रकार केजरीवाल अपने तमाम मंत्रियों, विधायकों, पदाधिकारियों पर संगीन आरोपों में मुकदमों, गिरफ्तारी और बर्खास्तगी और चुनाव के पूर्व दिल्लीवासियों को सब्जबाग दिखाने के वादों को भुलाकर विज्ञापनों के सहारे लोकप्रिय बने रहने के प्रयास में असफलता के बावजूद नरेंद्र मोदी को लक्ष्य कर घात करके शोहरत हासिल की है, अब ममता बनर्जी शारधा, नारधा चिटफंड घोटाले जिसमें उनके मंत्री और सांसद आरोपित हैं तथा जिसकी आंच उन तक भी पहुंच रही है, पर परदा डालने के लिए केंद्र सरकार की ‘‘डकैती’’ का शिगूफा छोडक़र अपने को मोदी के विकल्प के रूप में स्थापित करना चाहती है। वैसे तो यह कहावत दोनों पर ही लागू होती है कि न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी लेकिन किसी को दिवास्वप्न देखने से कौन रोक सकता है।


यहां संभवत: इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं होगी कि देश की दो राजनीतिक कुंवारियों ने क्यों नोटबंदी के निर्णयों को वापिस लेने की मुहिम छेड़ रखी है और इसके लिए अनमोल अभिव्यक्तियों का नया कीर्तिमान स्थापित करने में अन्यों को पछाडऩे में लगी हुई हैं क्योंकि उस निर्णय से उनके ऊपर पडऩे वाले प्रभाव की चर्चा का उल्लेख भर इसके लिए पर्याप्त होगा, परंतु उसका दर्द उन लोगों को भी जो नोटबंदी के निर्णय से ‘‘अवाम की दिक्कतों’’ का सियापा कर रहे हैं लेकिन नोटबंदी को वापस लेने की अभिव्यक्ति की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। ‘‘करोड़ों के हीरे’’ पहनकर गरीबों की मसीहा बनी हैं तो दूसरी सादगी का प्रतीक होने के बावजूद चिटफंड कंपनियों की हमवार बनी हुई हैं। इन लोगों का दावा है कि सरकार को न तो आम आदमियों को होने वाली परेशानी का अनुमान था, और न उसके लिए कोई उपाय किए गए। ऐसा अभियोग लगाकर संसद को जाम करने वालों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 30 दिसम्बर तक असुविधा रहने की अभिव्यक्ति कर अवाम में असुविधा के बावजूद इस निर्णय की सराहना का जो व्याप्त है, उसको कम करने का प्रयास किया है। लेकिन क्या वे सफल हो रहे हैं? नोटबंदी पर मोदी को विपक्षी दल चाहे जो कुछ कहकर घेरने का प्रयास कर रहे हों, प्रत्येक सर्वेक्षण में मोदी के समर्थकों का संख्या में इजाफा ही होता जा रहा है। संसद को ठप करने, अपने को चमकाने के लिए लम्पट शब्दावली से शब्दकोश को खाली कर देने वालों को अभी भी हकीकत समझ में नहीं आ रही है और वे देश की रक्षा के लिए सन्नद्ध सेना को राजनीतिक लाभ के लिए विवाद में घसीटने का उल्लिखित प्रयास कर रहे हैं। कांग्रेस ने सेना के सर्जिकल स्ट्राइक को संदिग्ध बनाने का अभियान चलाया तो ममता बनर्जी ने उसके रूटीन अभ्यास को ‘‘लोकतंत्र पर हमला’’ बताकर देश का माहौल बिगाडऩे के प्रयास में अपनी ही नाक कटवा ली। नरेंद्र मोदी ने 2002 में जब गुजरात के मुख्यमंत्री का दायित्व संभाला तब से अब तक उनके खिलाफ जो अभियान चलाया गया उसका लाभ गणित पढ़ाने वाले शिक्षक अपने छात्रों को फ्लॉप प्लस कैसे माइनस हो जाता है, इसको उदाहरण स्वरूप पेश कर आसानी से समझा सकते हैं। पिछले चौदह सालों में जितना ही मोदी विरोधी अभियान सघन होता गया, उतना ही मोदी की स्वीकार्यता बढ़ती गई। टाइम्स के एक सर्वेक्षण में विश्व भर में कोई भी नेता मोदी की लोकप्रियता को आघात नहीं पहुंच पाया है। मोदी की लोकप्रियता जहां 18 प्रतिशत है वहीं ट्रम्प और पुतिन की केवल 7 प्रतिशत है। इस स्वीकार्यता को बढ़ाने में मोदी की स्टाइल का कम योगदान नहीं है। मोदी ने संभवत: बचपन में वह कहावत सुनी होगी कि ‘‘हाथी चला बाजार कुत्ते भौंके हजार’’। शायद यही कारण है कि अपने ऊपर लगाये गये असफल, अनर्गल और कुत्सित आरोपों का प्रतिउत्तर करने के बजाय अपने निर्धारित मार्ग पर आगे बढ़ते रहने पर ही ध्यान केंद्रित रखा है। इसलिए उन पर आरोपों की, की जा रही बौछार की सघनता के बावजूद उनकी स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है। जो कहा वह करेंगे, कर रहे हैं का उनका स्वरूप आरोपों की बौछार को निरंतर कम करता दिखाई पड़ रहा है। भाजपा को 2014 के चुनाव में मिली सफलता के बाद कांग्रेस की विकल्प के रूप में फिर उभरने की संभावना क्षीण हो जाने के कारण जिन ‘‘नेताओं’’ में विकल्प का नेतृत्व करने की महत्वाकांक्षा उभरी उनमें से कई शांत हो चुके हैं क्योंकि उन्हें समय का संकेत समझ में आ रहा है लेकिन कुछ लोगों को अभी भी ‘‘नाचो कूदो तोड़ो तान, तेहिक दुनिया राखे मान’’ की कहावत पर भरोसा बना हुआ है। इसके लिए केजरीवाल और ममता बनर्जी के बीच भौड़ेपन की अतिशयता की होड़ जारी है।

‘बदनाम होंगे तो क्या, नाम तो होगा’ इस कहावत के अनुरूप चर्चित रहने के लिए अरविन्द केजरीवाल और ममता बनर्जी ने जो उदाहरण पेश किए हैं, उससे उनके अपने कुशासन पर डाला जा रहा परदा अब तार-तार हो चुका है। दिल्ली और बंगाल को संभालने के बजाय देश को संभालने की लालसा ने केजरीवाल को तो दीवार से पीठ लगा दिया है, ममता की कटुता के परिणाम उनकी सेना पर आक्षेप से नजर आने लगा है। यदि पिछले 14 वर्षों में नरेंद्र मोदी का धैर्य नहीं टूटा, वे अपने संकल्प से विचलित नहीं हुए तो अब जबकि दुनिया भर में उन्हें भारत का मान बढ़ाने का श्रेय प्राप्त हो चुका है, भ्रष्टाचार के खिलाफ तथा सबका साथ सबका विकास के लिए समायोजित अभियान की गति को अबाध बनाए रखा है, लम्पट अभिव्यक्तियों से विचलित करने की आकांक्षा फलीभूत होगी इसकी कोई संभावना है? वाणी को जब आचरण का चरण मिलता है तभी वह प्रभावी होती है। नरेंद्र मोदी ने कथनी और करनी में समरूपता को आचरणीय साख स्थापित किया है। इसलिए उनके मुकाबले कोई भी टिक नहीं पा रहा है। संसद न चलने देने और सेना पर ओछा आरोप लगाकर नोटबंदी के प्रति अनुकूलता को प्रतिकूल प्रभाव वाला साबित करने में किन-किन कारणों से कौन कौन मुखरित है, इसकी हर चैपाल में चर्चा है। चर्चा यह भी है कि अब मोदी किसी को भी नहीं छोडऩे वाला है। अपने विधायकों, सांसदों को अपने खाते का ब्यौरा देने की बात अब उन्होंने भले ही कही हो, लेकिन दायित्व संभालते ही मंत्री, सांसदों को पद के अनुरूप आचरण और व्यक्तिगत पारिवारिक, सम्बन्धियों के हित पोषण से जिस पर निगरानी रखकर दूर रखा है उसके कारण अवाम को यह भरोसा है कि वे जो कह रहे हैं वह करेंगे और उसी में देश का भला है। मोदी विरोधी मर्यादा और नैतिकता की सीमा लांघकर जो गंदा माहौल बना रहे हैं, उसका प्रदूषण उन्हीं के लिए घातक हो रहा है। मोदी के लिए तो यह ‘‘ससुराल की माला और पीछे की छींक, सदैव शुभ होती है’’ के अनुरूप साबित हो रही है।

Updated : 9 Dec 2016 12:00 AM GMT
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