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कांग्रेस फिर गठबंधन की राह पर

लम्बे समय से हासिए की ओर जा रही कांग्रेस पार्टी गुजरात चुनाव के लिए गठबंधन की तलाश करती हुई दिखाई दे रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि वर्तमान में कांग्रेस क्या इतनी कमजोर हो चुकी है कि उसे तिनके का सहारा ढूंढना पड़ रहा है। राज्य स्तरीय छोटे राजनीतिक दलों की ओर कांगे्रस का इस प्रकार का झुकाव निश्चित ही कांगे्रस की वर्तमान राजनीतिक स्थिति को दर्शा रहा है। कुछ दिनों पूर्व कांगे्रस के भविष्य के मुखिया राहुल गांधी ने मंदिरों में जाकर कांगे्रस को वोट दिलाने के लिए प्रार्थनाएं कीं, लेकिन यह प्रार्थनाएं परिणति में परिवर्तित हो जाएंगी, यह कहना फिलहाल जल्दबाजी ही होगी। आगामी गुजरात चुनाव के लिए वर्तमान स्थिति का अध्ययन किया जाए तो यह साफ दिखाई देता है कि यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए एक चुनौती है। हालांकि यह चुनौती कांग्रेस ने पैदा की है, यह कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस स्वयं ही अपने उद्धार के लिए सहयोगी दलों की तलाश करने की मुद्रा में है। भारतीय जनता पार्टी के लिए चुनौती इसलिए मानी जा सकती है कि लम्बे समय से गुजरात में भाजपा की सरकार स्थापित है। कांग्रेस हर बार की तरह ही इस बार भी जोर लगा रही है। पिछले कुछ महीनों में गुजरात में नए नेताओं के रुप में उभर कर आने वाले हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और निग्नेश मेवानी अब कांगे्रस की ओर समझौते की राजनीति के तहत हाथ बढ़ा रहे हैं। इससे ऐसा ही लगता है कि इन तीनों ने केवल भाजपा का विरोध करने को ही अपना आधार बनाया। तीनों भाजपा विरोधी नेता कांग्रेस के अशोक गहलोत और भरत भाई सोलंकी से वार्ता कर गठबंधन की गुंजाइश तलाश रहे हैं।

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस की हालत बहुत कमजोर है। लोकसभा चुनाव के बाद हुए अधिकतर विधानसभा चुनावों में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के सहारे अपने उत्थान का मार्ग बनाने का प्रयास करती हुई दिखाई दी। आज भी कांगे्रस के हालात जस के तस दिखाई दे रहे हैं। कांगे्रस को आज भी गठबंधन की तलाश है। प्रश्न यह आता है कि क्या कांगे्रस के नेताओं के पास इतनी ताकत नहीं है कि वह अपने स्तर पर पार्टी को जीत दिला पाने में समर्थ हो सकें। अभी की स्थिति तो यही प्रदर्शित कर रही है कि कांगे्रस अकेले चुनाव लड़कर सम्मानजनक स्थिति में नहीं पहुंच सकती। कांगे्रस के नेता भी लम्बे समय से सत्ता से दूर रहने के कारण हताश होने लगे हैं। यही हताशा कांगे्रस के भविष्य पर बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह उपस्थित कर रही है। कांगे्रस को लेकर एक और सबसे बड़ा सच यह भी है कि कांगे्रस अपने उत्थान के लिए गठबंधन करने का प्रयास कर रही है, लेकिन गठबंधन में शामिल होने वाले दल सशंकित हैं। यह दल तमिलनाडु और उत्तरप्रदेश में किए गए गठबंधन के प्रयोग और उसके बाद मिली करारी पराजय के कारण मंथन की मुद्रा में हैं। इन दोनों प्रदेशों में कांग्रेस ने हम तो डूबे हैं सनम तुमको भी ले डूबेंगे वाली उक्ति ही चरितार्थ की। तमिलनाडु में जिस करुणानिधि की जीत पक्की मानी जा रही थी, उन्हें कांग्रेस का साथ लेने के कारण करारी हार का सामना करना पड़ा, इसी प्रकार उत्तरप्रदेश के हालात भी कमोवेश ऐसे ही रहे। विधानसभा चुनाव से पूर्व समाजवादी पार्टी सरकार बनाने का दावा कर रही थी, लेकिन कांग्रेस उसे भी ले डूबी। गुजरात के क्षेत्रीय दल भी इसी बात को लेकर भयभीत होंगे। कांगे्रस आज भले ही तिनके का सहारा ढूंढ रही हो, लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि तिनका भी डूब जाता है। यह भी सच है कि डूबते जहाज की सवारी कोई नहीं करना चाहता, लेकिन कांग्रेस ऐसे प्रयोगों को जन्म दे रही है। क्षेत्रीय दलों के सामने मजबूरी यही है कि उनकी पूरी राजनीति ही केवल भाजपा विरोध पर ही आधारित है, ऐसे में उन्हें तो केवल भाजपा विरोधी राजनीतिक दल को ही समर्थन देना है, दूसरा विकल्प उनके सामने नहीं है। इस प्रकार की राजनीति करना देश के लिए घातक ही कही जाएगी, क्योंकि केवल विरोध करने के लिए ही विरोध करना किसी भी प्रकार से ठीक नहीं कहा जा सकता।

Updated : 23 Oct 2017 12:00 AM GMT
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