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गौ संवर्धन का भाव जाग्रत कराती ब्रज की दीपावली

-मधुकर चतुर्वेदी


हमारे जीवन की मन्दाकिनी पर्व और उत्सवों से ही प्रवाहित होती चली आ रही है। इसलिये हमारे कैलेन्डरों में शायद ही कोई ऐसी दिनांक होगी, जिस पर कोई उत्सव न हो। उत्सवों की श्रंखला में दीपावली एक ऐसा त्यौहार है जो उन्नति का प्रतीक है और जिसे हर व्यक्ति, हर समाज व हर समूह अपने हिसाब से मनाता आया है। प्रकृति से समीपता के कारण इसके धार्मिक, सामाजिक व आर्थिक आयाम भी हैं। आज समाज में त्यौहार और उत्सव का पारंम्परिक रुप बदलता जा रहा है और उसका दुष्परिणाम भी दिख रहा है। इस भू भाग में एक ऐसा स्थान भी है, जहां पर परिवेश बदला, मानव का स्वभाव बदला, प्रकृति बदली, नदियों की धाराओं में परिवर्तन आया लेकिन कहीं बदलाव नहीं आया तो उत्सवीय परंपराओं में। जी हां हम बात कर रहे हैं, सात वार और नौ त्यौहारों की स्थली ब्रजमंडल का। यहां आज भी दीपावली को ब्रजवासी अपनी कलुषित भावनाओं से मुक्त होकर अपनी चित्त-वृतियों को गुणों को प्राप्त करने की प्रेरणा से मनाते हैं।

तीन रात्रियों में श्रेष्ठ है मोहरात्री : भारतीय उत्सव परंम्परा में तीन प्रकार की रात्रियों कालरात्री, महारात्री एवं मोहरात्री का अपना अलग ही स्थान है। इन रात्रियों में हम प्रकृति के साथ उत्सव को मनाते हैं। कालरात्री होली पर्व पर, महारात्री शिवरात्री पर्व पर तथा मोहरात्री दीपावली पर दृश्य होती है। ब्रज में मोहरात्री शरद एवं दीपावली दोनों संयुक्त हैं। इन तीनों महारात्रियों का महत्व इसलिये भी है कि ये पर्व दिन के उजाले में न होकर रात्री में प्रकाश-जागरण के साथ मनाने की परंम्परा है। जैसा कि सूरदास जी ने दीपावली के पद में गाया भी है ह्यआजदिपत दिव्य दीममालिका। मानो कोटि रवि कोटि चंद छबि विमल भई निशि कालिका।

ब्रज में एक मास तक आयोजित होगी है दीवाली : हमारी भारतीय उत्सवीय परंम्परा की ये मौलिकता है कि सभी पर्व प्रकृति को केन्द्र में रखकर उसी के साथ मनाये जाते हैं। यहां दीपावली का त्यौहार पूरे एक मास तक मनाया जाता है। इसका वैज्ञानिक तथा खगोलीय आधार यह है कि जब सूर्य तुलाराशि में प्रवेश करता है, तभी कार्तिक मास आता है। सूर्य की राशि स्थितियों के अनुसार ही यह समय सूर्य के उत्तरायण से दक्षिणायन का होता है और सूर्य के कर्क राशि पर आने पर रितु परिवर्तन अर्थात दक्षिणायन होता है साथ ही कार्तिक मास में भगवान विष्णु के शयन से प्रबोधन तक मनाये जाने वाले चातुर्मास्य का समापन होता है।

गौ तथा कृषि उन्नति की प्रतीक ब्रज की दीपावली : कार्तिक मास में तीन प्रमुख कर्म है पहला वनपूजन, तुलसी द्वारा दूसरा देवपूजन गाय द्वारा तथा तीसरा जल सोत्रों पर दीपदान करना यह इसका मुख्य कर्म है। तुलसी को आयुर्वेद में रोगहारक कहा गया है। गाय में सभी देवताओ का मूल होने के कारण पूरे मास गाय से विषयक तीन पर्व गोवत्स द्वादशी, गोर्वधन तथा गोपाष्टमी मनायी जाती है। इसके अमृतमय दुग्ध से आयु की वृद्वि तथा कृषि की उन्नति होती है। यह तीनों कर्म हमें प्रकृति से जोडते है और उसके प्रति सम्मान की शिक्षा भी देते हैं।

महाराज पृथु देते हैं निमंत्रण : ब्रज में दीपावली का प्रारंभ धनतेरस से करते हुए प्रात: मंदिरों के चैक में मंडल बनाकर उस पर वेदिका की पूजा होती है। रंगोली व बंदरवान से द्वारों को सजाकर सायं दीपदान किया जाता है। कही इसे महाराज पृथु द्वारा पृथ्वी का दोहन कर देश को धन-धान्य से समृद्व बना देने के उपलक्ष्य में, कहीं पर लक्ष्मीं जी के समुद्रमंथन में से प्रगट होने के कारण, कही पांण्डवों के वनवास से लौटने पर तो कही श्रीराम के अयोध्या आगमन से जोडकर मनाने का वर्णन मिलता है। परन्तु इस पर्व का आनन्द प्राण ब्रजमण्डल है। ब्रज की सोभा दीपन सौ, दीपन की सोभा गोवर्धन सौ।

ब्रज में लक्ष्मी पूजन से पहले श्रीगोवर्धनाथ जी के पूजन का चलन : दीपावली पर ब्रज के पुराने वैष्णव घरों में महालक्ष्मी के बजाय गोवर्धननाथ श्रीकृष्ण के पूजन का चलन है। दीपावली के दिन ही गौशालाओं से गाय मन्दिर में आती है तथा उनका सामूहिक पूजन होता है। जिसे कान्ह जगाई कहते हैं। इसका रागरस श्रेष्ठ उल्लेख अष्टछाप के कवियो ने खूब किया है- दीपदान दे हटरी बैठे, नवललाल श्रीगोवर्धन धारी।

पांच दिनों तक गूंजते हैं ध्रुपद गायन के स्वर : ब्रज की प्राचीन अट्टालिकाओं में जगमगाते दीपों की दीपों की दीपमालिका भवन, आंगन, वन, सरिता तथा आकाश में प्रकाश उत्पन्न कर देती है। साथ ही केदार, गौरी बिलावल, कल्याण, सारंग रागों का सुमधुर ध्रुपद गायन चारो ओर रस समुद्र को उत्पन्न कर देता है। रागों के स्वर पर मृदंग की थाप मानो मोहरात्री का आलिंगन कर रही हो, इस बीच भगवती महालक्ष्मी का पृथ्वी पर गमन होता है। दीपावली की रात्री में ही पांसे खेले जाते है। पांसे खलने के पद भी गाए जाते है। पांसे खेलत है पिय प्यारी, पहलौ दाव पडों श्यामा कौ तब नख बेसर हारी।

वनविहार कर दीपदान के साथ समापन : दीपोत्सव के अंत में वनविहार, जलविहार तथा यमुना-गंगा और पवित्र नदियों व जल सोत्रों पर दीपदान किया जाता है। जल पर दीपों के बिम्ब की शोभा से मानो सहस्त्र नक्षत्रों का धरती पर आगमन सा हुआ प्रतीत होता है। अन्तिम पांचवे दिन भाईदूज का प्रेम भरा पर्व होता है। इस दिन यमुना स्नान का बहुत महत्व है। बहनों द्वारा भाई के तिलक लगाकर मंगलकामना के साथ सभी भारतीय ग्रहस्थ सामुहिक पर्व मनाते हुए अगले वर्ष के दीपावली उत्सव के मनोरथ को प्राप्त होते है। सत्यता तो यही है कि इनता राग रंग, आनन्द, इनती विविधताऐ इतनी भावनाऐ सम्पूर्ण विश्व में भारत के अलावा कही नहीं मिलती। इसीलिये कहा जाता है- धन्या तु भारतभूमि:।

Updated : 25 Oct 2017 12:00 AM GMT
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