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गुजरात में बिखरा कांग्रेस के सपनों का महल

गुजरात में बिखरा कांग्रेस के सपनों का महल
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हिमाचल को बचाने और गुजरात को पाने का कांग्रेसी सपना बिखर गया। उसकी झोली से एक राज्य और कम हो गया। इस बार उसकी उम्मीद बुलन्दी पर थी । जातिवादी आंदोलन के युवा नेताओं को गले लगाया । बड़े जतन से बनाई गई सेकुलर छवि में लचक पैदा की । लेकिन कोई भी नुस्खा काम नही आया। नोटबन्दी, जीएसटी, ईवीएम ,सभी अस्त्र शस्त्र निरर्थक साबित हुए। इसका दूरगामी प्रभाव होगा। इन चुनावो से तय हुआ कि आमजन के नरेंद्र मोदी पर विश्वास कायम है ,और उन्हें एक बार फिर मौका देने को वह तैयार दिखाई दे रहा है।

ताजपोशी के बाद कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने भाजपा पर बड़ा हमला किया। कहा कि भाजपा आग लगा रही है। जो आग राहुल को दिखाई दे रही थी ,उस पर गुजरात चुनाव परिणाम ने पानी अवश्य फेर दिया। यह कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी था। क्योंकि इस बार उसे गुजरात में जातीय समीकरण अपने अनुकूल लग रहे थे। हार्दिक पटेल को पकड़ा , और मान लिया कि पाटीदार कांग्रेस में आ गए । अल्पेश ठाकोर को पकड़ा , और मान लिया कि गुजरात का पिछड़ा वर्ग उनके साथ आ गया । जिग्नेश को पकड़ा और मान लिया कि दलित उसके साथ आ गए। कांग्रेस मान कर चल रही थी कि मुसलमानों के सामने कोई विकल्प नहीं है । इसलिए उस ओर पहले की तरह जोर नहीं लगाया । राहुल यहां हिन्दू और जनेऊधारी बनकर उभरे थे। ईसाइयों से विशप खुद भाजपा के खिलाफ मत देने की अपील कर चुके थे। इसके साथ ही नोटबन्दी और जीएसटी के तीर भी कांग्रेस के तरकश में थे। जम कर चलाये गए। लेकिन सपनों का यह महल परिणाम आने के साथ बिखर गया।
शास्त्रीय संगीत में रागों के गायन का प्रहर निर्धारित होता है। पिछले कुछ समय से ऐसा प्रहर राजनीतिक राग में दिखाई दे रहा है। खासतौर पर कांग्रेस, सपा, बसपा की इसमें जुगलबंदी चलती रही है। इस राग के गायन का समय अलग अलग है। चुनाव के पहले प्रधानमंत्री नरेंद मोदी पर एक राग आधारित होती है। यह बताने का प्रयास होता है कि कांग्रेस ,सपा,बसपा के शासन में विकास की ईमानदारी के साथ गंगा बह रही थी । किसान ,व्यापारी ,सभी खुशहाल थे,किसी प्रकार की समस्या नहीं थी। देश केवल इन चार वर्षों में बर्बाद,तबाह हो गया है । इसके लिये मोदी जिम्मेदार हैं।

चुनाव के बाद दूसरा राग गाने का समय आ जाता है। यह राग ईवीएम पर आधारित होता है। इसके स्वर होते हैं कि ईवीएम में गड़बड़ थी ,नहीं तो कांग्रेस की सरकार बनती । इसके अलावा पहली राग में नोटबन्दी , जीएसटी के स्वर होते हैं। इनके आधार पर बताया जाता है कि देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह बर्वाद हो गई है। यह जानकारी आम जन को दी जाती है। गब्बर सिंह का उल्लेख होता है। रील लाइफ में गब्बर सिंह का प्रकोप रामपुर गांव से पचास कोस तक तक था । लेकिन अब कहा जा रहा था कि गब्बर सिंह टैक्स ने पूरे देश को बेहाल कर दिया है। जीएसटी का यही फुलफार्म बताया गया। ये बात अलग है कि इसे पारित कराने में सर्वदलीय सहमति थी। जो जीएसटी काउंसिल बनी है ,उसमें विपक्षी पार्टियों के मुख्यमंत्री भी शामिल हैं। इसी प्रकार नोटबन्दी का जख्म भी गहरा लगा है। आम जन की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं है । लेकिन विपक्ष के बड़े नेता साल भर बाद भी इसे लेकर परेशान हैं। कुछ समय पहले उन्होने एक वर्ष पूरा होने पर भारत बन्द किया था। उसकी विफलता के बाद ही यब मुद्दा छोड़ देना चाहिए था। लेकिन कांग्रेस गुजरात में भी इसे प्रमुख मुद्दा बनाये रही। इसी प्रकार आम जन खाता में पन्द्रह लाख की चर्चा नहीं करता। वह संयमी है। जानता है कि मोदी ने कहा था कि विदेशों में इतना धन जमा है ,वह वापस आ जाये तो सबके खाते में पन्द्रह लाख पहुंच जाए । यह कथन विदेशों में जमा धन की मात्रा बताने के लिए था।

गुजरात उन प्रदेशों में शामिल है, जहाँ कांग्रेस और भाजपा सीधे मुकाबले में रहती है। किसी अन्य पार्टी का यहाँ उल्लेखनीय अस्तित्व नहीं है। ऐसे में पहली बात तो यह कि इन प्रदेशों में कांग्रेस को अपने दम पर चुनाव लड़ते हुए दिखना चाहिए था। इसी हैसियत में उसे किसी अन्य के साथ तालमेल करना चाहिए। लेकिन यहां भी कांग्रेस कमजोर मनोबल के साथ समर में उतरी। ऐसा लगा जैसे नरेंद्र मोदी के खिलाफ बोलने के अलावा उसके पास कुछ नहीं है। बिहार, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की लाचारी दिखाई दी थी । उसने बिहार में राजद और उत्तर प्रदेश में सपा के पीछे चलना मंजूर किया था। लेकिन यही कमजोरी गुजरात में भी कायम रही । जहाँ वह मुख्य विपक्षी और सत्ता की प्रमुख दावेदार थी । यहां भी वह हार्दिक पटेल ,अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश जैसे जातिवादी नेताओं की खुशामद करती दिखाई दी । यह कार्य प्रांतीय स्तर के नेता करते तो गनीमत थी। लेकिन इसमें सीधे राहुल गांधी का नाम आ रहा था। अल्पेश की जनसभा में राहुल शामिल हुए । हार्दिक से गोपनीय मुलाकात सुर्खिया बन गईं । बाद में उसके साथ समझौता हुआ। इसमें भी आरक्षण पर झूठा वादा किया गया। लोग इसकी असलियत समझ गए थे। जिग्नेश ने कांग्रेस के साथ समझौते से इनकार कर दिया। फिर भी कांग्रेस उसे विधानसभा चुनाव में समर्थन देने को दौड़ पड़ी। जाहिर है कि कांग्रेस में आत्मविश्वास का नितांत अभाव था। इसी लिए उसकी बातों में असर कम था। राहुल जो प्रश्न दाग रहे थे, उनपर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया। कई प्रश्न तो कांग्रेस को ही कठघरे में पहुंचा रहे थे। यूपीए सरकार के समय कांग्रेस ने गुजरात का विकास बाधित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी । ये नरेंद्र मोदी ही थे जो गुजरात को आगे बढाने में लगे रहे।

नरेंद्र मोदी पर निजी हमले भी कांग्रेस को भारी पड़े। मोदी की छवि ईमानदार और सुशासन स्थापित करने वाले नेता के रूप में कायम है। कांग्रेस के नेता जब इस मजबूत छवि पर हमला करते थे तब इसका उल्टा असर होता था। कांग्रेस के नेता ही कठघरे में आ जाते थे। नरेंद्र मोदी को गुजरात के गांव गांव तक की खबर है। वह जन सभाओं में सर्वाधिक समय विकास और स्थानीय बातों में लगाते थे। इससे स्थानीय लोगों से उनका संवाद स्थापित होता था। भाषण के पांच मिनट वह राष्ट्रीय या पाकिस्तान जैसे विषयों पर देते थे । यही राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बनती थीं । कांग्रेस के दिग्गज उसी में उलझ जाते थे। जबकि मोदी की भाषण की मूल विषय वस्तु स्थानीय थी। यह गुजरात के लोगों से उनका जुड़ाव था, जिसे कांग्रेस के नेता समझ नहीं सकें ।

कांग्रेस ने गुजरात चुनाव जीतने के लिए अपने मूल स्वरूप में बड़ा बदलाव किया था। इसके लिए पर्याप्त नेक नियत न होने से उसे नुकसान हुआ। जबकि इस मामले में मोदी की लोकप्रियता कायम थी। आमजन नोटबन्दी ,जीएसटी ,पन्द्रह लाख रुपये, इन सबसे ऊपर उठ कर सोच रहा था। वह मोदी को कमजोर होता देखने को तैयार नहीं था। गुजरात में कांग्रेस का ऐसा सोचना ही गलत था। यह संभव नहीं था कि लोग नरेंद्र मोदी को छोड़कर कांग्रेस पर विश्वास कर लेंगे। कांग्रेस के लिए आत्मचिंतन का अवसर है। लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं है। जब कोई पार्टी ईवीएम पर अपनी पराजय की जिम्मेदारी थोप देती है ,तब सुधार की संभावना समाप्त हो जाती है। इसी ईवीएम ने इन पार्टियों को सत्ता में पहुंचाया था। चित्त- पट सब इन्हीं की हुई। ये जीतें तो ईवीएम ठीक ,नहीं तो खराब । यदि सरकार ऐसा कर सकती तो क्या दिल्ली में तीन,केरल में एक, पश्चिम बंगाल में मात्र तीन सीट पर भाजपा न सिमट जाती। तमिलनाडु में उसका खाता नहीं खुला । इस प्रकार के तर्क मतदाताओं और चुनाव आयोग का अपमान करने वाले हैं। विपक्षी नेताओं की छवि भी इससे बिगड़ रही है। यह बात प्रमाणित भी होती जा रही है। सत्ता में रहते हुए इन नेताओं ने जो गलतियां की है ,उसे लोग भूले नहीं है। ऐसे में आत्मचिंतन ,आत्मसुधार और समय के इंतजार के अलावा विपक्ष के पास कोई विकल्प फिलहाल नहीं है।

Updated : 19 Dec 2017 12:00 AM GMT
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