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एमपी के इन जंगलों में बाघों को नहीं मिल पा रहा भोजन, शिकार की तलाश में बदला ठिकाना

एमपी के इन जंगलों में बाघों को नहीं मिल पा रहा भोजन, शिकार की तलाश में बदला ठिकाना
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भोपाल। प्रदेश में बाघ और तेंदुए अब नया ठिकाना ढूंढते नजर आ रहे हैं। यही कारण है कि वह अपने पुराने घर को छोड़कर नई जगह पहुंच रहे हैं। स्थिति ये है कि पहले कभी जहां बाघों, तेंदुओं का नाम-ओ-निशां नहीं था, वहीं उनके होने के संकेत मिल रहे हैं। इन इलाकों में झाबुआ, रतलाम, बडऩगर (उज्जैन) में बाघ दिखाई दे रहे हैं। वहीं राजधानी से सटे ईंटखेड़ी में भी बाघिन की मौजूदगी ने करोंद क्षेत्र के निवासियों में भय का माहौल बना दिया है। गौरतलब है कि इसी रास्ते से वर्ष 2015 में एक युवा बाघ राजधानी के नवीबाग क्षेत्र तक पहुंच गया था, जिसे सात घंटे की मशक्कत के बाद पकड़ा जा सका था।

बाघ इसलिए छोड़ रहे इलाका

जंगलों में खाना और पानी की कमी ने बाघों और तेंदुओं को अपना टैरिटरी एरिया बदलना पड़ रहा है। अब उन इलाकों में भी इन प्राणियों को देखा जा रहा है, जहां पहले कभी नहीं देखा गया। वन्यप्राणी विशेषज्ञ इसे सरकार की कमजोरी बता रहे हैं। उनके मुताबिक संरक्षित और सामान्य वन क्षेत्रों में खाने और पानी की पर्याप्त व्यवस्था हो जाए, तो जानवर दूसरी जगह नहीं जाता। बाघों-तेंदुओं का जंगल से बाहर आना स्पष्ट करता है कि जंगलों में पानी-खाने का इंतजाम नहीं है। फिर भी संरक्षित क्षेत्रों में टेरेटोरियल फाइट (क्षेत्र की लड़ाई) हो रही है।

वन्यजीव विशेषज्ञों के मुताबिक जंगलों में दो बाघों के बीच क्षेत्र की लड़ाई होना आम है। इस लड़ाई में या तो बाघ की मौत होती है या फिर वह ताकतवर बाघ से डरकर दूसरी जगह तलाशने निकल जाता है। कई बार ताकतवर बाघ भी नए क्षेत्र (खाने और पानी) की तलाश में दूर तक निकल जाता है। वर्तमान में देखे जा रहे बाघ ऐसे ही हैं। वे एक बार में पांच-पांच सौ किमी चलते हैं।

शहरीकरण ने बदली दिशा

एक्सपट्र्स का कहना है कि शहरीकरण की वजह से जंगल खत्म हो रहे हैं। लोगों को जहां जगह दिखती है, वहां रहवासी क्षेत्र बन जाता है। बाघों का मूवमेंट नई बात नहीं है। वे पहले भी इन्हीं इलाकों से आते-जाते रहे हैं, लेकिन पहले घना जंगल हुआ करता था। नदी-नालों में पानी होता था, जिनके सहारे बाघ पांच सौ किमी या इससे भी ज्यादा का सफर बिना किसी भय के करते थे और घने जंगलों के कारण उन्हें कोई देख तक नहीं पाता था। हालांकि एक्सपट्र्स इस बात को भी नहीं नकारते कि जंगलों में बाघों और तेंदुओं के लिए पर्याप्त खाना-पानी नहीं बचा है।

इसी संदर्भ में वन्यप्राणी विशेषज्ञ एके दीक्षित कहते हैं कि वन्यप्राणी ईको सिस्टम का हिस्सा हैं। किसी जंगल में शाकाहारी वन्यप्राणी पर्याप्त मात्रा में होते हैं, तो मांसाहारियों की संख्या भी बढ़ेगी। वर्तमान में संरक्षित और गैर संरक्षित क्षेत्र में ग्रासलैंड कम हुआ है। जंगलों में खरपतवार बढ़ गई है, जो शाकाहारी और मांसाहारी वन्यप्राणियों के लिए नुकसानदायक है। जब तक घास के अच्छे मैदान नहीं होंगे चीतल, सांभर, हिरण की संख्या नहीं बढ़ेगी और तब तक बाघ-तेंदुए जंगल से बाहर निकलते रहेंगे।

अब इन इलाकों में दिख रहे बाघ

उज्जैन के बडऩगर, रतलाम, झाबुआ, भोपाल के नजदीक ईंटखेड़ी में बाघ-बाघिन, शावक और भोजपुर एवं अशोकनगर में तेंदुओं की दस्तक सुनाई दे रही है। भोजपुर में शिव मंदिर के नजदीक तेंदुए का शावक मिला था, लेकिन उसकी मां का अब तक पता नहीं चला है।

मवेशियों पर जीवित

वन्यप्राणी विशेषज्ञों का कहना है कि एक बार जंगल से बाहर आया बाघ या तेंदुआ वापस जंगल का रुख नहीं करता। क्योंकि उसे पता होता है कि जानवर चरने आएंगे और वह आसानी से उन्हें शिकार बना लेगा। खेत-खलिहानों में पानी की व्यवस्था भी उसे रास आती है। यही कारण है कि वह एक बार जंगल से बाहर आया तो जंगल के किनारे ही रहता है। फिर वह क्षेत्र छोड़कर कहीं नहीं जाता।

Updated : 20 Dec 2017 12:00 AM GMT
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