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मन के कांटे

मन के कांटे
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सेठ अमीचंद के पास अपार धन-दौलत थी। उसे हर तरह का आराम था लेकिन उसके मन को शांति नहीं मिल पाती थी। हर पल उसे कोई न कोई चिंता परेशान किए रहती थीांं उसे किसी साधु के प्रवचनों की आवाज सुनाई दी। उस आवाज से प्रभावित होकर अमीचंद आश्रम के अंदर गया और बैठ गया

प्रवचन समाप्त होने पर सभी व्यक्ति अपने-अपने घरों को चले गए लेकिन वह वहीं बैठा रहा। उसे देखकर संत बोले, कहो, तुम्हारे मन में क्या जिज्ञासा है जो तुम्हें परेशान कर रही है। इस पर अमीचंद बोला, बाबा, मेरे जीवन में शांति नहीं है। यह सुनकर संत बोले, घबराओ नहीं तुम्हारे मन की सारी अशांति अभी दूर हो जाएगी। तुम आंखें बंद करके ध्यान की मुद्रा में बैठो।

संत की बात सुनकर ज्यों ही अमीचंद ध्यान की मुद्रा में बैठा त्यों ही उसके मन में इधर-उधर की बातें घूमने लगीं और उसका ध्यान उचट गया। सेठ बोला, बाबा, मेरा ध्यान में मन ही नहीं लग रहा है। संत कुछ देर चुप रहे फिर बोले, चलो, जरा आश्रम का एक चक्कर लगाते हैं। इसके बाद वे आश्रम में घूमने लगे। अमीचंद ने एक सुंदर वृक्ष देखा और उसे हाथ लगाया। हाथ लगाते ही उसके हाथ में एक कांटा चुभ गया और सेठ अमीचंद बुरी तरह चिल्लाने लगा।

यह देखकर संत वापस अपनी कुटिया में आए। कटे हुए हिस्से पर लेप लगाया। कुछ देर बाद वह सेठ से बोले, तुम्हारे हाथ में जरा सा कांटा चुभा तो तुम बेहाल हो गए। सोचो कि जब तुम्हारे अंदर ईर्ष्या, क्रोध व लोभ जैसे बड़े-बड़े कांटे छिपे हुए हैं तो तुम्हारा मन भला शांत कैसे हो सकता है? संत की बात से सेठ अमीचंद को अपनी गलती का अहसास हो गया। वह संतुष्ट होकर वहां से चला आया।

Updated : 10 Feb 2017 12:00 AM GMT
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