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वो आग से जला, जो नदी के करीब था

वो आग से जला, जो नदी के करीब था
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बीते तेरह वर्षों से सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी जिस तरह ऊंचाइयां छू रही है, उसी तेज गति से पुराने व जमीनी कार्यकर्ता नाराज होते जा रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी ने जो कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया और उसी नारे पर अमल मप्र भाजपा कर रही है। उससे देश व प्रदेश में बेशक कांग्रेस का ग्राफ गिरता ही चला जा रहा है, लेकिन भाजपा के लाखों कार्यकर्ता आज स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। कारण, पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं को न पूछना, उस निष्ठावान कार्यकर्ता की बात को हवा में उड़ा देना, उसके या उसके परिवार के छोटे-मोटे कामों को तवज्जो न देना आदि प्रमुख हैं। कार्यकर्ता की नाराजगी से लगता है कि अब पार्टी इतनी ऊंचाई पर पहुंच गई है कि उसे जमीनी कार्यकर्ता दिखाई ही नहीं दे रहा है।

ग्वालियर के ही प्रसिद्ध कवि स्व. मुकुट बिहारी सरोज की एक कविता की कुछ पक्तियां याद आ रही है।

हमको क्या लेना-देना
ऐसे जनमत से है
खतरा जिसको रोज
स्वयं के बहुमत से है।

भारतीय जनता पार्टी दिन दूनी, रात चौगुनी बढ़ रही है बढ़ना भी चाहिए। हमारी शुभकामनाएं, लेकिन पार्टी के उन लाखों कार्यकर्ताओं का मनोबल नहीं टूटना चाहिए जिन्होंने अपना घर द्वार छोड़कर पार्टी के काम में पूरा जीवन होम कर दिया।
आज हालात यह हैं कि न अपील-न दलील। सीधे निलंबन। कार्यकर्ता अपनी बात कहां रखें? पार्टी का कार्यकर्ता उचित स्थान पर अपनी बात करता भी है लेकिन वे उचित स्थान भी कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। कार्यकर्ता की पीड़ा जब कहीं नहीं सुनी जाती तो अखबार में बयान देता है। जब अखबार में भी उसे अपनी पीड़ा व्यक्त करने का स्थान नहीं मिलता, तब वह सोशल मीडिया पर अपनी दर्द भरी दास्तां लिख देता है। पार्टी उसे अनुशासनहीनता मानती है और है भी लेकिन नेतृत्व एक बार उसके दु:खते दर्द का हाल तो जान ले। निलंबन तो चार दिन बाद भी हो सकता है उससे पहले उसकी बात सुन ली जाए तो संभव है कि निलंबन जैसी कार्रवाई करना ही न पड़े। हालात ये हैं कि

मंजर ही उस हादसे का
अजीबो-गरीब था,
वो आग से जला
जो नदी के करीब था।

यानि जो ज्यादा निष्ठावान, वही परेशान। आग में भी वो ही जल रहे हैं जो नदी के करीब हैं। भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता को देव दुर्लभ कहा जाता है और है भी। भाजपा का कार्यकर्ता जरा सी बात करने मात्र से ही संतुष्ट हो जाता है। जब बात करने से ही बात बनती हो तो कड़े निर्णय लेने की जरूरत ही क्या? भाजपा के सामने चौथी बार सरकार बनाने का लक्ष्य है अभी लगभग साढ़े तेरह वर्ष सत्ता में रहते हुए हो जाएंगे। इन साढ़े तेरह सालों में कार्यकर्ताओं की नाराजगी बढ़ी है और लालसा भी। नाराजगी इस बात को लेकर भी है कि कुछ कांग्रेसी आज भाजपा के कर्मठ कार्यकर्ता बन बैठे हैं और ताउम्र काम करने वाला कार्यकर्ता चौखट पर ही खड़ा रह जाता है। जिन लोगों से भाजपा के कार्यकर्ता पोलिंग बूथों पर लड़े वे आज सर्वे-सर्वा बन बैठे। इससे कार्यकर्ता का मनोबल गिरा और उसके स्वाभिमान को चोट लगी तो नाराजगी भी बढ़ी। लेकिन पार्टी नेतृत्व ने उस कार्यकर्ता की नाराजगी दूर करने का प्रयास ही नहीं किया। जिस भाजपा में अच्छे-बुरे की परख करने वाले तपस्वी नेता हों उन नेताओं को यह जिम्मा सौंपा जाना चाहिए कि वे कार्यकर्ताओं को मनाएं और काम में लगाएं।

यंू तो सरकार ने आनंद मंत्रालय प्रारंभ किया है। आनंद मंत्रालय से वे ही लोग खुश हैं जो आनंद में हैं और परम आनंद को प्राप्त करने की ओर बढ़ रहे हैं। अब आनंद मंत्रालय में भाजपा का कार्यकर्ता तो जाने से रहा। फिर वह आनंद की अनुभूति कैसे कर पाएगा। कार्यकर्ता की पार्टी के प्रति निष्ठा, वफादारी और तपस्या का मूल्यांकन होना चाहिए।

उसकी निष्ठा पर तब तक प्रश्न चिन्ह नहीं लगना चाहिए जब तक कि कोई ठोस आधार न हो। आज भाजपा कार्यकर्ता को मनाने के लिए न तो कुशाभाऊ ठाकरे हैं, न प्यारेलाल खण्डेलवाल न नारायण कृष्ण शेजवलकर न माधव शंकर इन्दापुरकर और ना ही भाऊ साहब पोतनीस। इन तपस्वी नेताओं को पार्टी का कार्यकर्ता अपना आदर्श मानता था और उनकी बात मानकर काम में लग जाता था। आज कार्यकर्ताओं को मनाने वाला कौन है? अब मान-मनौब्बल का स्थान सीधे निलंबन और नोटिस ने ले लिया है, ऐसे में विचार करना होगा कि हम क्या अपने देव-दुर्लभ कार्यकर्ता के साथ न्याय कर रहे हैं? नवम्बर 2018 आने में अब ज्यादा समय नहीं बचा है। पार्टी को अभी से उन कार्यकर्ताओं तक पहुंचना होगा जो आज की भीड़ में काफी पीछे पहुंच गए हैं और अंतिम छोर पर जाकर खड़े हो गए हैं।


Updated : 4 May 2017 12:00 AM GMT
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