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शिक्षा की अलख जगाता गंगाजली

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सिंधिया राजवंश के गंगाजली खजाने का इतिहास

- ज्योति मिश्रा
यूं तो राजा महाराजाओं के खजानों के बहुत से किस्से हम सुनते आए है लेकिन कुछ खजाने हमारे भारत में ऐसे भी है जिनका इतिहास में जिक्र तो है लेकिन इनके बारे में लोग आज भी अंजान हैं। इन खजानों की तह में जाकर देखा जाए तो यह ज्ञात होगा कि हमारे भारत में ऐसे कई खजाने हैं जो इतिहास में वर्णित हैं। जिनमें से प्रमुख नादिरशाह का खजाना, सोनभद्र गुफाएं, मीर उस्मान अली का खजाना आदि ऐसे खजाने हैं जिनका रहस्य आज भी कोई नहीं जान पाया है। ऐसे ही खजानों में से एक मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले से जुड़ा हुआ है इसका वर्णन इतिहास के पन्नों में भी देखने को मिलता है।

यह रहस्य ग्वालियर के सिधिंया राजवंश के खजाने का है। जो आज गंगाजली ट्रस्ट के नाम से जाना जाता है। इसका जिक्र ब्रिटिश लेखक एम. एम. केय की किताब 'फार पैवीलियंस' में भी किया गया है। इस खजाने को लेकर ऐसा कहा जाता है कि एम. एम. केय के पिता 'सर सेसिल केय' जो सर माधवराव सिंधिया प्रथम के खास मित्र थे। उन्हें इस रहस्य के बारे में स्वयं सर माधवराव सिंधिया ने बताया था।

आखिर क्या है गंगाजली
17-18वीं शताब्दी में सिंधिया राजशाही ग्वालियर के किले से लगभग पूरे उत्तर भारत पर शासन कर रही थी। ग्वालियर का किला राजपरिवार के खजाने और हथियार, गोला-बारूद रखने का स्थान था। यह खजाना किले के नीचे गुप्त तहखानों में रखा जाता था। जिसका पता सिर्फ राजदरबार के कुछ खास लोगों को था। यह खजाना 'गंगाजली' के नाम से जाना जाता था इसका मुख्य उद्देश्य युद्ध, अकाल और संकट के समय में उपयोग करने के लिए था। इस खजाने को एक खास कूट-शब्द (कोड वर्ड) से सील कर दिया जाता। यह खास कूट-शब्द जिसे 'बीजक' कहा जाता था, सिर्फ महाराजा को मालूम होता था। यह 'बीजक' महाराजा परम्परानुसार अपने उत्तराधिकारी को बताया करते थे। बिना 'बीजक' के तहखानों को खोलना असंभव था।

सन 1857 में कुछ समय के लिए किले पर विद्रोहियों ने कब्जा कर लिया, जिसे बाद में अंग्रेजों ने अपने कब्जे में ले लिया। महाराज जयाजीराव वैसे तो खजाने के प्रति निश्चिंत थे, लेकिन जब किले का अधिकार अंगे्रजों को मिला तो जीवाजीराव को चिंता हुई कि कहीं अंग्रेज खजाने तक न पहुँच जाएँ।

सन 1886 में जब अंगे्रजों ने किले का अधिकार पुन: सिंधिया परिवार को सौंप दिया, उन्होंने किले में पहुंचते ही बनारस से मिस्त्रियों को बुलाया, उन्हें आँखों पर पट्टी बांध कर ट्रेन में बिठाकर ग्वालियर लाया गया। बाद में किले के अन्दर ले जाया गया। इन मिस्त्रियों को तब तक किले में रखा गया, जब तक कि इन्होंने गुप्त खजाने का द्वार खोद कर निकाला। जब महाराज ने सुनिश्चित किया कि खजाना सुरक्षित था तो पुन: उस प्रवेश द्वार को बंद कर दिया गया।

दुर्भाग्य से उस घटना के कुछ समय बाद ही राजा जयाजीराव सिंधिया का निधन हो गया और चूंकि सर माधवराव उस समय बच्चे ही थे, वह 'बीजक' पाने में असफल रहे। इस घटना से राजदरबार में खलबली मच गयी। इस दुविधा को देखते हुए ग्वालियर में रहने वाले एक ब्रिटिश 'कर्नल बैनरमैन' ने खजाना खोजने में राजपरिवार की मदद करने की पेशकश की। कर्नल पूरे जी-जान से किले की छानबीन में लग गए। बड़ी मेहनत से कर्नल एक तहखाना खोजने में सफल हुए। जब खजाने का द्वार खुला तो सबके होश उड़ गये। कर्नल बैनरमैन के शब्दों में यह खजाना, अलीबाबा के खजाने की कल्पना के बराबर था। खजाने में 6 करोड़ 20 लाख सोने के सिक्के निकले, लाखों चाँदी के सिक्के, हजारों की संख्या में बेशकीमती, दुर्लभ रत्न, मोती, हीरे-जवाहरात निकले। ग्वालियर किले में ऐसे कई और तहखाने थे जहाँ 'गंगाजली' खजाना छुपा हुआ था। जब माधवराव को ग्वालियर राजशाही का उत्तराधिकार मिला। उन्होंने अन्य तहखानों की खोज पुन: शुरू की।

सर माधवराव के बहुत प्रयत्नों के बावजूद भी खजाने का पता नहीं चल पाया। भाग्यवश एक दिन माधवराव अपने किले के एक गलियारे से गुजर रहे थे। उस रास्ते से गुजरते हुए अचानक माधवराव का पैर फिसला, सँभलने के लिए उन्होंने एक खम्भे को पकड़ा वह खम्भा एक तरफ झुक गया और एक गुप्त तहखाने का दरवाजा खुल गया। तहखाने की छानबीन में माधवराव सिंधिया को 2 करोड़ चाँदी के सिक्कों के साथ अन्य बहुमूल्य रत्न मिले। इस खजाने के मिलने से माधवराव की आर्थिक स्थिति में बहुत वृद्धि हुई। वर्षों की हताशा और बुरे अनुभवों से शिक्षा लेते हुए सर माधवराव ने यह निर्णय लिया कि वो कभी भी अपने धन को इस तरह गुप्त रूप से नहीं छुपायेंगे। राजा माधवराव ने अपने खजाने को रुपयों में बदलकर मुम्बई लाकर उद्योग-जगत की कई बड़ी कंपनियों में निवेश किया। सन 1920 के दौरान टाटा-समूह की आर्थिक हालत अच्छी नहीं थी। टाटा समूह के प्रबंधकों ने राजा माधवराव से आर्थिक सहायता का निवेदन किया। राजा माधवराव खुशी से सहायता करने को राजी हुए और वे टाटा-समूह के सबसे बड़े निवेशकर्ताओं में से एक बने।टाटा-समूह में निवेश इस कहानी के सच्ची होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। ऐसा माना जाता है कि आज भी ग्वालियर के किले में 'गंगाजली' खजाना छुपा हुआ है। सिंधिया परिवार के 'गंगाजली' खजाने का रहस्य आज भी बरकरार है।

संविधान में संशोधन के कारण खत्म हुई राजशाही
सर माधवराव सिंधिया कांग्रेस पार्टी के नेता माधवराव सिंधिया के दादा जी थे। माधवराव के पिता 'जीवाजीराव सिंधिया' ग्वालियर के महाराजा थे। अत: सन 1961 में उन्हें ग्वालियर का राजा बनाया गया परन्तु सन 1971 में संविधान के 26वें संशोधन के कारण उनकी राजशाही खत्म कर दी गयी और उनके सभी विशेषाधिकारों को हटा दिया गया।

शाही विवाद- सिंधिया बनाम सिंधिया
जब विजयाराजे कांग्रेस पार्टी में थी उस समय इंदिरा गांधी ने उनकी संपत्ति को सरकारी घोषित करवा दिया, जिससे विजयाराजे और इंदिरागांधी के बीच दूरियां आ गई और राजमाता विजयाराजे भाजपा पार्टी में शामिल हो गई। लेकिन कुछ समय बाद ही माधवराव भी कांगे्रस पार्टी में शामिल हो गए और सिंधिया बनाम सिंधिया एक दूसरे के सामने आ खड़े हुए। फलस्वरूप राजमाता विजयाराजे ने 1985 में बनाई अपनी वसीयत में सब कुछ अपनी बेटियों के नाम कर दिया। इसके बाद ही विजयाराजे ने विजयाराजे सिंधिया ट्रस्ट का अध्यक्ष अपने राजनीतिक सलाहकार संभाजीराव आंग्रे को बना दिया।

सिंधिया परिवार की देन है कई शिक्षण संस्थान
विदिशा का एसएटीआई इंजीनियरिंग कॉलेज सहित मध्यप्रदेश के अनेक शिक्षण संस्थान सिंधिया परिवार की देन है। 01 नवंबर 1960 को जीवाजीराव सिंधिया ने राज्य शासन से मिली जमीन पर एसएटीआई की नींव रखी थी। जिसके लिए उनके गंगाजली ट्रस्ट ने राशि दान की थी। जिसकी आधारशिला देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरूजी ने रखी थी एवं उक्त संस्थान का लोकार्पण तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी ने किया था। इसी कड़ी में प्रमुख रूप से ग्वालियर में जीआर मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग के क्षेत्र में एमआईटीएस, जीवाजी विश्वविद्यालय, सभी सिंधिया परिवार की देन है वहीं दूसरी ओर सिंधिया स्कूल की गिनती एशिया के प्रमुख 10 स्कूलों में की जाती है।

सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक कार्यों के लिए बनाया गंगाजली
१९४७ में भारत जब स्वतंत्र हुआ उसके बाद भारत वर्ष में जो भी राज्य रजवाड़े थे उनको स्टेट में मिलाना था। मध्यप्रदेश का 1 नवंबर 1956 में गठन हुआ मध्यप्रदेश में जो भी रजवाड़े थे उनका विलय होना था, सवाल यह था कि इनकी संपत्ति को अधिक से अधिक कैसे बचाया जाए। गंगाजली ट्रस्ट एक ऐसा ट्रस्ट था जो सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक कार्यों के लिए बनाया गया था। 1964 में इसी फंड में से 25 लाख रुपए से जीवाजी यूनीवर्सिटी खुला एवं उसी फंड में से 20 लाख रूपए से आर्कियोलॉजी विभाग बनाया गया। इस ट्रस्ट पर राज्य का कोई हस्तक्षेप नहीं है तथा यह वर्तमान में भी कार्यरत है।

प्रोफेसर रामावतार शर्मा
एन्सीएन्ट इंडियन हिस्ट्री कल्चरल एंड आर्कियोलॉजी विभाग

Updated : 7 May 2017 12:00 AM GMT
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