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प्रकृति से दुश्मनी जानलेवा साबित होगी

प्रकृति से दुश्मनी जानलेवा साबित होगी
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पर्यावरण की लगातार बिगड़ती सेहत को सुधारने के लिए सरकारी स्तर पर तमाम योजनाएं और कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। बहुत से उपायों के बावजूद पर्यावरण की सेहत में आंशिक सुधार होता दिख रहा है। पर्यावरण की हालत दिन ब दिन गंभीर होती जा रही है। आजादी के बाद से जब से सरकारी स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के प्रयास शुरू हुए हैं, तब से आज तक तमाम योजनाओं में फैले भ्रष्टाचार, अदूरदर्शी निर्णयों, गलत नीतियों और शून्य जनसहभागिता के परिणामस्वरूप पर्यावरण आईसीयू में लेटा दिख रहा है। पर्यावरण की बिगड़ती हालत और बढ़ते प्रदूषण के कई कारण गिनाये जाते हैं। समस्या का ईमानदारी और निष्पक्ष तरीके से आकलन करें तो सरकारी अमले के अदूरदर्शी निर्णयों और जन सहभागिता की कमी ने समस्या को बढ़ाने का काम किया है। वहीं सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों में व्याप्त भ्रष्टाचार कोढ़ में खाज की भूमिका निभा रहा है। हर साल विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर रस्मी तौर पर पर्यावरण की बिगड़ती सेहत का रोना रोया जाता है। नये संकल्प लिये जाते हैं। उसके बाद सारा साल प्रकृति से दुश्मनी निभाई जाती है।

मनुष्य और प्रकृति के बीच ऐसे सम्बंध है कि प्रकृति के बिना मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जल, जंगल, जमीन से मनुष्य को जीवन जीने की शक्ति मिलती है। प्रकृति ने मनुष्य को बिन मांगे अनमोल उपहार दिए हैं। हमारे पूर्वजों ने संस्कृति का ऐसा ताना-बाना बुना है जिसमें मनुष्य और प्रकृति में प्रत्येक स्तर पर संतुलन दिखाई देता है। विकास की अंधी दौड़, बाजारीकरण, औधोगीकरण और प्रकृति विरोधी नीतियों ने मनुष्य और प्रकृति के तालमेल में असंतुलन पैदा किया है। प्रकृति का अंधाधुंध दोहन और उपभोग पर्यावरण से जुड़ी अनेक समस्याओं का कारण बन रहा है। धरती का तापमान लगातार वर्षवार बढ़ रहा है। समुद्र का बढ़ता जलस्तर भारी खतरे का संकेत है। ग्लेश्यिर निर्धारित समय से पूर्व एवं अधिक तेजी से पिघल रहे हैं। ऋतु चक्र में परिवर्तन, अत्यधिक वर्षा और सूखा सामान्य घटनाओं की श्रेणी में खड़ी दिख रही हैं। लगातार धरती से हरियाली का क्षेत्रफल घट रहा है। पीने का शुद्ध जल गंभीर समस्या का रूप धारण कर चुका है। प्रकृति से मित्रता की बजाय हमारा रवैया शत्रुओं जैसा है। ऐसे में प्रकृति भी समान व्यवहार करने को विवश हो रही है।

पर्यावरण की बिगड़ती सेहत को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार अपनी चिंता जाहिर की है। संबंधित एजेंसियों को प्रदूषण रोकने के निर्देश दिए हैं। एनजीटी भी लगातार पर्यावरण को लेकर सरकारी एजेंसियों व निजी संस्थानों को आगाह करने के साथ-साथ कार्रवाई भी कर रही है। सरकार एवं स्थानीय निकायों की तरफ से भी प्रदूषण रोकने के ठोस प्रयास किए जाने के दावे किए जाते हैं मगर जब हकीकत में देखा जाता है तो इनके दावे उस कूड़े के साथ जलते हुए नजर आते हैं जो आज देश के कई शहरों में जलाया जाता है। पार्को में पेड़ पौधों की पत्तियां हों या फिर कूड़ेदानों के बाहर जमा कूड़ा कचरा, हर प्रकार के कूड़े को जलाने पर प्रतिबंध है और न मानने पर जुर्माने का प्रावधान भी। मगर सरकारी एजेंसियों को जलता हुआ यह कूड़ा नजर ही नहीं आता। शायद इसकी एक वजह यह भी है कि इस कूड़े को जलाने में लिप्तता कहीं न कहीं एजेंसियों की भी है जो इसे उचित स्थान पर निपटान करने के बजाय जहां-तहां जलाकर ठीकाने लगाने में भलाई समझती हैं। इस तरह से कुछ स्थानों पर अदालत के आदेश को दरकिनार कर पर्यावरण के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। अमेरिका स्थित नासा का ताजा अध्ययन इस बात की ओर इशारा करता है कि वर्ष 2017 का यह तीसरा जनवरी माह है, जो सबसे गरम रहा। दूसरा सबसे गरम जनवरी माह वर्ष 2016 का था और पहली बार वर्ष 2007 का जनवरी माह। इन मौसमी रिकार्ड के मुताबिक पहले वर्ष 2015 सबसे गर्म साबित हुआ, फिर वर्ष 2016। अगर मौसम में ऐसे ही बदलाव जारी रहे तो शायद वर्ष 2017 अब तक का सबसे गर्म वर्ष साबित हो जाए, और पारा पचास डिग्री सेल्सियस को छू ले। क्या समाज को अब 50 डिग्री सेल्सियस तापमान के अनुरूप अपनी जीवन शैली विकसित करनी पड़ेगी? बढ़ते तापमान के पैटर्न को देखने से समझ में आ रहा है कि साल दर साल गरमी का संताप बढ़ने वाला है।

निश्चित ही बढ़ता तापमान भारतीय समाज के लिए चिंताजनक है। दुर्भाग्य है कि एक तरफ गर्माती धरती के नाम पर गाल बजाए जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ उसे बढ़ाने के सारे उपक्रम भी किए जा रहे हैं। भोगवादी प्रवृत्ति और चमक-दमक वाले विकास के पीछे भागते हुए इंसान ने विकास के नाम पर फ्लाईओवर, कंक्रीट के जंगल, बांध, जंगलों का सफाया करने जैसे कारनामे किये। इनके दुष्परिणामों की वजह से ऐसे गंभीर हालात में पहुंच गए हैं। भूमि, जल, हवा, ध्वनि जैसे प्रदूषणों को फैलाकर तापमान बढ़ाने में हम सब भागीदारी निभा रहे हैं। परिणामस्वरूप वर्षवार देश के लोग बढ़ते गरम ताप से झुलसने को विवश हो रहे हैं। इसका ज्यादा खामियाजा देश की 80 प्रतिशत जनता भोगने को अभिशप्त है।

पर्यावरण जोखिम रिपोर्ट 2012 के मुताबिक शहरो में ऊर्जा के अधिक इस्तेमाल, कार्बन उत्सर्जन के अलावा बाढ़ और तूफान जैसे जोखिमों का खतरा और रिपोर्ट के अनुसार ग्रीन हाउस गैस का वैश्विक उत्सर्जन का स्तर 36 अरब टन हो जायेगा। डेनमार्क की राजधानी 2500 से ज्यादा वैज्ञानिक पूरी तरह से सहमत थे की ग्लोबल वार्मिंग के दुष्परिणामों से यदि नहीं चेते तो युद्ध सी स्थिति बन सकती है। इस सदी के अंत तक समुद्र के जल में 1 मीटर की वृद्धि पायी गयी है। वन का विनाश जीवन को ऐसे गर्त में डाल रहा है जहां से निकलना संभव नहीं है। और पहाड़ों से विकास का भूत उतारना होगा, आज विकास के लिए पहाड़ो के सिर काटे जा रहे है। ग्लोबल वामिंग से प्रभावित होकर एवरेस्ट की ऊंचाई 8848 से 8844.43 मीटर हो गयी है। एक संर्वेक्षण के मुताबिक इस देश के 26 राज्यों के 180000 ग्रामीण क्षेत्रों पर पेयजल में फ्लोराइड, आर्सेनिक, लौहान्स, नाइट्रेट व खारापन पाया गया है।

जब-जब मानव ने प्रकृति के साथ छेड़छाड़ की, प्राकृतिक असंतुलन की स्थिति पैदा हुई है। इससे मानवीय विपदाएं शुरू हो जाती हैं। मौसम का मिजाज बदल जाता है। ग्लोबल वार्मिग के प्रभाव से ग्लेशियर घटते चले जा रहे हैं, जिसके कारण त्रासदी आती है। विज्ञान भी बताता है कि बिगड़ते पर्यावरण संतुलन के कारण पृथ्वी की निचली सतह पर हो रहे घर्षण के कारण इतनी ऊर्जा संग्रहीत होती जा रही है कि वह कभी भी विस्फोटक रूप ले सकती है। ऐसा इसलिए है कि क्योंकि जंगल से लेकर पहाड़ों तक और नदी से लेकर मैदान तक हर जगह प्रकृति का दोहन ही हो रहा है। वर्ष 2013 में उत्तराखण्ड त्रासदी ने मानव जाति को कड़ा संदेश देने का काम किया।
ऐसे में विचारणीय बिंदु यह है कि क्या हमारा प्रकृति के प्रति व्यवहार उचित है। क्या हम प्रकृति के साथ मैत्री नहीं रख पा रहे हैं। क्या हम अपनी पुरानी आदतें भुलकर अनजाने में प्रकृति के दुश्मन बन बैठे हैं। क्या हम प्रकृति से पंगा लेकर सुरक्षित रह पाएंगे। ऐसे तमाम प्रश्नों का उत्तर नहीं में है। पूर्व की पीढ़ियों ने अपने समय में प्रकृति का पूर्ण विकास कर उनको भौतिक संपत्ति के रूप में बदलकर अगली पीढ़ियों को प्रदान किया जाना है और यह माना है कि आने वाली पीढ़ी उन पूर्वजों का उपकार मानेगी, लेकिन वर्तमान पीढ़ी की तो भावी मानव के लिए जटिल समस्याएं और प्रकृति के विध्वंस का आधार छोड़ कर जाने की संभावनाएं बन रही हैं। आज रेगिस्थान बढ़ रहे है। जीव-जन्तुओं की बहुत सी प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। प्रकृति के वर्तमान दोहन के भविष्य की आवश्यकताओं को दृष्टि में रखकर ही अपनी योजनाओं का निर्माण करना चाहिए। प्रकृति जब कुपित होती है तो सब कुछ क्षणभर में नष्ट कर देती है। इसलिए प्रकृति के साथ छेड़छाड़ नहीं कराना चाहिए। पर्यावरण को संतुलित करने से ही हम धरती को बचा सकते हैं। वर्तमान समय हमें यही संदेश दे रहा है कि यदि जीवन बचाना है तो पर्यावरण से दोस्ती करो, दुश्मनी नहीं।

लेखक - आशीष वशिष्ठ

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Updated : 4 Jun 2017 12:00 AM GMT
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