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राज्यसभा में विपक्ष की नकारात्मक राजनीति

चुनाव में पिछले तीन वर्षों के निराशाजनक प्रदर्शन ने विपक्षी दलों को मायूस किया है। उत्तर प्रदेश के चुनाव ने जख्मों को ज्यादा गहरा किया है। ऐसे में विपक्ष के पास अपने पैंतरों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त राज्यसभा ही बची है। आमजन के बीच विश्वास खो चुके दिग्गज यहां अपनी पूरी क्षमता लगा देते हैं। उन्हें लगता है कि राज्यसभा में किए गए उनके इस प्रदर्शन से खोया हुआ विश्वास लौट आएगा। लेकिन पिछले तीन वर्षों से चल रही ऐसी कोशिशों का कोई सार्थक परिणाम नहीं मिला।

अभी चल रहे राज्यसभा के अधिवेशनों पर विचार करें तो कई दिलचस्प तथ्य उभरते हैं। शुरुआत में बसपा प्रमुख मायावती, सपा नेता नरेश अग्रवाल और कांग्रेस के गुलाम नवी आजाद मुख्य किरदार थे। संयोग देखिए, मायावती और नरेंद्र अग्रवाल दोनों उत्तर प्रदेश के हैं। गुलाम नवी आजाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के प्रभारी हैं। विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने इन सबको नकारा है। इसके बाद यहां भी महागठबंधन बनाने की सुगबुगाहट शुरू हुई थी। राज्यसभा में जो कुछ है, उसमें सरकार पर हमले के साथ-साथ गठबंधन में पलड़ा भारी रखने की जोर आजमाइश भी साफ दिखाई देती है।

पहले दिन मायावती सहारनपुर का मुद्दा उठाती हैं। सहारनपुर में इस समय हिंसा का माहौल होता, तब माना जा सकता था कि इस पर कार्यस्थगन प्रस्ताव आना चाहिए। यहां स्थिति काफी दिनों से सामान्य है। ऐसे में यह कार्यस्थगन का विषय नहीं था। फिर भी उपसभापति पीजे कुरियन ने मायावती को तीन मिनट का समय दिया। बाद में मायावती ने इस्तीफा देने तक की नौबत ला दी। यह मायावती का दांव था। जो उत्तर प्रदेश की राजनीति के मद्देनजर चला गया था। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उनके भाई के खिलाफ घोटालों की जांच चल रही है। मायावती ने उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया है। इस्तीफे में परेशानी भी समाहित है। ऐसा करके वह सहानुभूति के साथ-साथ वोट बैंक की राजनीति करना चाहती थीं।

इसके बाद अगले एपिसोड पर गौर कीजिए। अगले दिन राज्यसभा में गुलाम नवी आजाद मोर्चा संभालते हैं। वह दिखाने का प्रयास करते हैं कि भारत में हिंसा का माहौल है। सर्वत्र भीड़ के द्वारा दलितों, अल्पसंख्यको का उत्पीड़न किया जा रहा है। कानून व्यवस्था से जुड़े मसलों को पूरे देश पर लागू कर के दिखा रहे थे। जबकि गोरक्षा आदि के नाम पर चंद लोग अराजकता करते हैं। इसे भीड़ का नाम दिया जाता है। सरकार व भाजपा ने इसकी खुली निंदा की है। दोषियों के खिलाफ कार्यवाही भी हो रही है। गुजरात में ऊना के बाद प्रदेश सरकार ने ऐसी घटनाओं को रोकने पर पूरा ध्यान दिया। ऊना के अपराधियों पर कड़ी कार्रवाई की गई। लेकिन कांग्रेस के दिग्गज नेता भी अगले कई वर्षों तक ऊना ही रटते रहेंगे। इस प्रकार गुलाम नवी आजाद राज्यसभा में जाति-मजहब की सियासत चला रहे थे। अपने गृह प्रांत में चल रहे अलगाववादी हिंसा इतना परेशान नहीं करती। झारखंड की अपराधिक घटना उन्हें परेशान- बेहाल कर देती है।

बसपा प्रमुख मायावती ने राज्यसभा से इस्तीफा देकर सियासी धमाका किया। कांग्रेस के गुलाम नवी आजाद ने जाति-मजहब को तूल दिया। ऐसे में सपा पीछे क्यों रहती। उसकी तरफ से नरेश अग्रवाल ने मोर्चा संभाला। सपा परिवार में कलह के बाद वह नीति-निर्माताओं में शामिल हुए हैं। ये बात अलग है कि उसके बाद सपा का चुनावी प्रदर्शन खराब रहा। उनका साथ रामगोपाल यादव ने दिया। राज्यसभा के मंच का भरपूर उपयोग इन्होंने भी किया। नरेश अग्रवाल ने हिंदू देवी-देवताओं के प्रति अपमानजनक टिप्पणी की। ऐसा करके वह अपने को बड़ा धर्मनिरपेक्ष दिखाना चाहते थे। रामगोपाल ने भी एलान किया कि अग्रवाल माफी नहीं मांगेंगे। सदन चले या न चले। यह सपा की राजनीति थी। कमोबेश विपक्षी राजनीति इसी तरह चल रही है। राज्यसभा में यह पूरी शिद्दत के साथ प्रकट होती है। धीरे-धीरे राज्यसभा में विपक्षी सदस्यों की संख्या कम होनी है। सत्ता पक्ष की बढ़नी है। फिर भी विपक्ष राज्यसभा में तीन वर्षों से चल रही नकारात्मक राजनीति की समीक्षा नहीं कर रहा है। भारतीय प्रजातंत्र में विपक्ष इतना विचार और दिशाहीन पहले कभी नहीं था। उसकी समस्त ऊर्जा का प्रदर्शन राज्यसभा तक सिमट कर रह गया है। यहां उसका बहुमत है। सरकार पर हमला बोलने का इससे बेहतर स्थान फिलहाल उसके पास नहीं है। यहां दहाड़ने वालों को चुनावी समर में शिकस्त मिल रही है। उसी को बदहवासी राज्यसभा में दिखाई देती है।

विपक्ष राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के विस्तार से विचलित है। केंद्र में उसकी सरकार को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है लेकिन विरोध का सही तरीका उसे समझ नहीं आ रहा है। विपक्षी नेताओं के बोलने से उनकी कुंठा उजागर होती है। वह किसान, विकास आदि के मुद्दे उठाते हैं, लेकिन इन मसलों पर उनका रिकॉर्ड सामने आ जाता है। घोटालों भ्रष्टाचार पर बोलने की स्थिति नहीं है। इस मामले में उनके दामन की दशा देश जानता है। ऐसे में दो ही रास्ते बचे थे। एक यह कि विपक्ष जनादेश को सहजता से स्वीकार करे। भाजपा की सरकारें संवैधानिक तरीके से गठित हुई है। विपक्ष को इस पर असहिष्णु नहीं होना चाहिए। सरकार का विरोध करना उनका अधिकार है। लेकिन उसमें मात्र नकारात्मकता नहीं होनी चाहिए। इसके अलावा विरोध के वही मुद्दे आमजन को प्रभावित करते हैं, जिन पर विपक्ष की सरकारों का रिकार्ड बेहतर रहा हो। यह नहीं चलेगा कि जिन कार्यों पर 10 वर्षों में वह एक कदम भी कायदे से न बढ़ा सके हों, उनके तीन वर्षों में पूरा करने की दूसरों से अपेक्षा करें। आमजन ऐसी बातों को बखूबी समझते हैं। यही कारण है कि ऐसे मुद्दों पर चलाये गये ऐसे तीरों से विपक्ष का ही नुकसान होता है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है लेकिन विपक्षी नेता उसपर विचार नहीं करना चाहते।

Updated : 22 July 2017 12:00 AM GMT
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