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सर्व कल्याण चाहते थे एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय

सर्व कल्याण चाहते थे एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय
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लोकमत के परिष्कार की रही भावना



दीनदयाल उपाध्याय ने स्वस्थ लोकतंत्र के लिए लोकमत परिष्कार का सुझाव दिया था। उस समय देश की राजनीति में कांग्रेस का वर्चस्व था। उसके विकल्प की कल्पना भी मुश्किल थी। दीनदयाल जी से प्रश्न भी किया जाता था। जब जनसंघ के अधिकांश उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो जाती है, तो चुनाव में उतरने की जरूरत ही क्या है। दीनदयाल जी का चिंतन सकारात्मक था। उनका कहना था कि चुनाव के माध्यम से जनसंघ की विचारधारा का प्रचार हो जाता है। लोगों तक विचार पहुंचता है। कभी न कभी लोग इसको समझेंगे। उत्तर प्रदेश भाजपा के संगठन महामंत्री सुनील बंसल मानते हैं कि चार पांच वर्ष पूर्व लोगों की परिष्कार के प्रति जागरूकता बढ़ी है। लोगों ने प्रश्न पूछना शुरू किया। संप्रग सरकार के घोटालों पर प्रश्न होने लगे। नरेंद्र मोदी जैसा ईमानदार, राष्टÑ व समाज के प्रति समर्पित राजनेता पर लोगों ने विश्वास किया। बेहतर विकल्प उनके सामने था। भाजपा को भारी बहुमत मिला। यह लोकमत के परिष्कार का ही परिणाम था। दीनदयाल उपाध्याय ऐसा परिष्कार चाहते थे, जिसमें जातिवाद, वंशवाद, धनबल आदि के आधार पर चुनाव न हो। जो समस्याएं दीनदयाल जी के समय में थी, वह वर्तमान में भी कायम थी। यहां भाजपा जैसे कतिपय अपवाद छोड़ दें, तो सभी पार्टियां वंशवाद पर आधारित हैं। दीनदयाल जी मानते थे यदि राजनीतिक पार्टियां गलत रास्ते पर हों तो उन्हें सुधारने का कार्य भी मतदाता कर सकते हैं। इस कथन का निहितार्थ समझना होगा।

राजनीतिक दल वंशवाद और जातिवाद पर आधारित हो सकते हैं। लेकिन लोकमत परिष्कृत होगा तो इन कमियों पर विचार करेगा। जो पार्टी वंशवाद पर आधारित होगी वह सत्ता में आने के बाद वंशवाद को ही मजबूत बनाने की कोशिश करेगी। दीनदयाल जी ने जौनपुर लोकसभा चुनाव जीतने के लिए जातिवाद का सहारा लेने से इनकार कर दिया था। उनका कहना था कि ऐसा करने से दीनदयाल तो जीत सकता है, लेकिन जनसंघ पराजित हो जाएगा। बात सच थी। दीनदयाल जी खुद चुनाव जीतने को जातिवाद का सहारा लेते तो लोकमत परिष्कार के उनके अभियान का क्या होता। वह इसकी अलख जगा रहे थे। लोगों को बता रहे थे कि लोकमत का परिष्कार न होने से लोकतंत्र कमजोर हो जाता है। राजनीतिक दल का उद्देश्य केवल चुनाव जीतना नहीं होता। वह समाज को बदलने के प्रति भी जवाबदेह होना चाहिए। यदि राजसत्ता समाज को बदलने में बाधक हो तो उसे भी बदलने का प्रयास होना चाहिए, लेकिन यह कार्य भी लोकमत के परिष्कार से ही करना होगा। अन्यथा सत्ता में कभी नैतिक बल नहीं हो सकता। दीनदयाल उपाध्याय का कहना था कि मतदाताओं को अपना महत्व समझना होगा।

सत्ता या व्यवस्थापक उसकी मालिक नहीं है। सरकार बनाने वाला मतदाता ही मालिक है। ऐसे में मतदान भी जिम्मेदारी का कार्य है। यदि मतदाता लगातार जातिवादी, वंशवादी, घोटालेबाजों को पराजित करता है, तो ऐसे लोगों का मनोबल टूटेगा। राजनीतिक दल अपने में सुधार को प्रेरित होंगे। मतदाता की सहभागिता वोट देने तक सीमित नहीं होनी चाहिए। सरकार बनने के बाद भी उसकी जागरूकता कायम रहनी चाहिए। दीनदयाल जी का यही सपना था। अंत्योदय के माध्यम से वह समाज के सभी लोगों को बराबरी पर लाना चाहते थे। राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ताओं का उद्देश्य लोकमत को बटोरना नहीं, बल्कि उन्हें जागरुक बनाना होना चाहिए। पार्टियां विचारों के साथ मतदाताओं तक जाएं। मतदाता उन पर सम्यक विचार करें। संख्या बल या सिर गिनकर विचारों का आकलन नहीं हो सकता। विचार और दृष्टि के आधार पर मूल्यांकन होना चाहिए। सिद्धान्तहीन मतदान राजनीति व शासन को भी सिद्धान्त विहीन बनाता है। दीनदयाल उपाध्याय आदर्श समाज व राजनीति के पक्षधर थे। उनका सपना धीरे-धीरे साकार हो रहा है।

Updated : 25 Sep 2017 12:00 AM GMT
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