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महाराज पांंडु से प्रेरणा ले न्यायपालिका

महाराज पांंडु से प्रेरणा ले न्यायपालिका
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-राकेश सैन, जालंधर
सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों सर्वश्री चेलामेश्वर, रंजन गोगोई, मदन बी. लोकूर और न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने प्रेस कान्फ्रेंस कर न्यायालय के भीतर जिन विसंगतियों पर प्रकाश डाला तो उससे स्वयंस्फूर्त स्मृति हो आई है भरतवंशी महाराजा पांडु की, जिन्होंने न्याय व्यवस्था में ऐसी उदाहरण प्रस्तुत की जो दुनिया की किसी भी न्यायकि प्रणाली का आदर्श हो सकती है। सर्वाधिकार संपन्न होने के बावजूद उन्होंने ऋषि दंपति की हत्या के आरोप में स्वयं को जो सजा दिलवाई वह न्याय के इतिहास में अद्वित्तीय और शक्तियों के विकेंद्रीकरण की लाजवाब उदारण है।
दिग्विजयी होने के बाद वे अथाह युद्धों की थकान मिटाने के लिए वे अपनी धर्मपत्नी माद्री और कुंती के साथ वनविहार को गए। एक दिन वे एक सिंह का शिकार करते-करते बहुत दूर निकल गए और अंधेरा हो गया। अचानक उन्होंने झाडिय़ों में आवाजें सुनी वहां पर शेर छिपा हुआ समझ कर आवाज की दिशा में तीर चला दिया जो ऋषि किंदम व उनकी पत्नी को लगा, जो वंशवेल वृद्धि में रत थे। महाराज पांडु के तीर से ऋषि व ऋषि पत्नी का देहांत हो गया परंतु इस घटना के बाद पांडु के जीवन का वह पक्ष उभर कर सामने आया जो विश्व की न्याय प्रणाली का आदर्श हो सकता है। ऋषि दंपति की हत्या के आरोपी पांडु, घटना के प्रत्यक्षदर्शी भी वही। एक राजतंत्र के शासक होने के नाते नियम बनाने वाले, दरबार में अधिवक्ता, न्यायाधिकारी, दंडाधिकारी और उसके बाद क्षमादान केअधिकारी भी खुद पांडु ही थे। चाहते तो अपराध को छिपा सकते थे, किसी दूसरे पर आरोप लगा सकते थे, इन हत्याओं को अनजाने में हुआ अपराध बता बच कर निकल सकते थे या बचाव में तर्क गढ़ सकते थे परंतु सर्व अधिकार संपन्न होते हुए भी उन्होंने न्याय किया। हस्तिनापुर जाकर पहले सिंहासन का त्याग किया, महात्मा विदुर व भीष्मपितामह को न्यायाधिकारी मान कर उनसे पूरे मामले में न्याय करने की याचना की। विदुर व भीष्म ने उन्हें हत्या का दोषी न मान कर दुर्घटनावश हुई हत्या का दोषी माना। इस पर महाराज पांडु अपना राजपाठ प्रतिनिधि के तौर पर धृष्टराष्ट्र को सुपुर्द कर खुद पत्नियों सहित वनवास पर चले गए।
अब बात करते हैं देश की सर्वोच्च न्यायालय में हुए घटनक्रम की, तो स्वयंस मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ मीडिया जगत ने भी न्याय प्रणाली की विसंगतियों को लेकर चारों न्यायाधीशों की प्रेस कान्फ्रेंस को अभूतपूर्व बताया। विषय बेहद गंभीर है, हां समय-समय पर न्याय व्यवस्था पर कई तरह के सवाल तो उठाए जाते रहे हैं परंतु ये बातें अक्सर दूसरी तरह से कही जाती रही हैं। न्यायालय में विसंगतियों का केंद्र बिंदु ये है कि मुख्य न्यायाधीश अन्य न्यायाधीशों के रोस्टर का निर्णायक होता है, जिसकी जिम्मेदारी है कि तर्कसंगत सिद्धांत के आधार पर किसी पीठ को केस सौंपे जाएं। अगर प्रेस कान्फ्रेंस की भाषा पर गौर करें तो इसे आसानी से केवल वकील और न्यायाधीश ही समझ सकते हैं। मुख्य तौर पर वे सिर्फ न्यायाधीशों की पीठ की नियुक्ति का मुद्दा ही उठा रहे थे। इसके अतिरिक्त इन न्यायाधीशों ने मेमोरेंडम आफ प्रासीजर की बात करते हुए भी पीठों की नियुक्ति पर ही बात की है। एनजेएसी केस में सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने जब मेमोरेंडम आफ प्रासिजर के साथ डील किया, तब इस केस में दो न्यायाधीश कैसे सुनवाई कर सकते हैं। ये बात भी न्यायाधीशों के पीठ की नियुक्ति पर प्रश्नचिन्ह लगाती है, जिस पर जनता का विश्वास निर्भर करता है। सर्वोच्च न्यायालय के एक से लेकर 26 या 31 नंबर तक जितने भी न्यायाधीश हैं, सब बराबर हैं लेकिन राष्ट्रीय महत्व के जो मामले होते हैं, तब सुनवाई कर रहे जजों की वरिष्ठता भी मायने रखती है। आखिर क्यों सर्वोच्च न्यायाल के सात सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों को न्यायाधीश कर्णन केस पर फैसला लेने के लिए चुना गया? सिर्फ इसलिए, क्योंकि इस मसले पर उच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश शामिल था। ठीक इसी तरह कई बड़े राष्ट्रीय मसले हैं, जिनकी सुनवाई वरिष्ठ न्यायाधीशों को एक सिद्धांत के तहत करने की जरूरत है।
इस प्रेस वार्ता में सर्वोच्च न्यायालय के दूसरे नंबर के न्यायाधीश जे. चेलमेश्वर ने कहा कि हम चारों इस बात पर सहमत हैं कि इस संस्थान को बचाया नहीं गया तो इस देश में लोकतंत्र जिंदा नहीं रह पाएगा। स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका अच्छे लोकतंत्र की निशानी है। इससे पहले कोलकाता उच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश सीएस कर्णन ने बंद लिफाफे में न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का मामला उठाते हुए बीस न्यायाधीशों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी। पर सवाल है कि क्या सचमुच स्थिति इतनी विकट हो गई थी कि न्यायाधीशों को स्वनिर्धारित मर्यादाओं का उल्लंघन करना पड़ा। यह गलत परंपरा की शुरुआत तो नहीं, क्योंकि जब सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश इस तरह करेंगे तो कल को यह क्रम निचले स्तर पर भी फैलेगा। इस बात में दो राय नहीं कि मतभेद न्यायाधीशों के बीच भी रहते हैं और न्यायालयों पर भी कई तरह के आरोप लगते हैं। अभी तक यह छिपे रहते हैं परंतु इस तरह की प्रेस कान्फ्रेंसों से अंदर की सारी बातें बाहर आएंगी। जो मुद्दे न्यायाधीशों को परस्पर चर्चा में उठाए जाते रहे हैं कल को वह प्रेस के माध्यम से उठाए जाने लगेंगे। इससे न्यायपालिका में बाहरी हस्तक्षेप बढ़ेगा और न्यायालयों की विश्वसनीयता भी प्रभावित होने की आशंका पैदा हो जाएगी। दूसरी तरफ इस प्रकरण को सकारात्मक दृष्टि से देखने वालों का भी दावा है कि इसमें कोई नई बात नहीं है। अमेरिका जैसे सफल लोकतांत्रिक देश में भी न्यायाधीश समय-समय पर प्रेस कान्फ्रेंस करते रहते हैं। इसका लाभ मीडिया के कामों की समीक्षा होने की प्रक्रिया शुरू होने के रूप में मिलता है। लोकतंत्र में अंतत: सभी शक्तियां जनता के हाथों में रहती हैं तो उसे न्यायिक व्यवस्था में क्या हो रहा है उसे जानने का भी अधिकार मिलना चाहिए और अपना मत व्यक्त करने का अवसर मिलना चाहिए।
इस प्रकरण में पक्ष और विपक्ष में दोनों तरह के तर्क दिए जा सकते हैं परंतु भारतीय न्यायिक प्रणाली के लिए आदर्श स्थिति तो वही है जो भरतवंशी चक्रवर्ती सम्राट पांडु ने हमें बताई। उन्होंने न्यायिक प्रक्रिया के सभी घटकों के लिए ईमानदारी, न्यायिक अधिकारी द्वारा शक्तियों का विभाजन, न्याय के लिए सबकुछ त्यागने का साहस जैसे ऐसे मानदंड स्थापित किए जो हमारी न्यायिक व्यवस्था को मौजूदा संकट से निकालने में सहयोग कर सकते हैं।

Updated : 14 Jan 2018 12:00 AM GMT
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