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भारत में असुरक्षित बेटियां, एक सुलगता सवाल?

-प्रभुनाथ शुक्ल

हमारे समाज की नैतिकता गिर गई है। सामाजिक मापदंडों का पतन हो चला है। तकनीकी और शैक्षिक रुप से जितने हम मजबूत और सभ्य हो रहे हैं, सामाजिक नैतिकता उतनी ही नीचे गिर रही है। बदलते दौर में सामाजिक सम्बन्ध की कोई परिभाषा नहीं बची है जो लांछित न हुईं हो। 21 वीं सदी में इसरो जैसा संगठन दुनिया का सबसे बड़ा अंतरिक्ष केंद्र बन गया है, लेकिन हमारी बेटियों की आबरू सरेआम सड़क पर लुट रही है। हम आधुनिक सोच का डंका पीट प्रगतिवादी होने का खोखला दम्भ भर रहे हैं। सामाजिक मनोवृत्ति में ऋणात्मक गिरावट दर्ज़ की जा रही है। समाज में असुरक्षा की भावना घर कर गई है। बेटियों की सुरक्षा को लेकर बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। महिलाएँ और बेटियाँ घर से लेकर कार्यस्थल और सड़क पर असुरक्षित हैं। हर मां-बाप की सबसे बड़ी चिंता उसकी बेटी है। बेटी बचाओ, बेटी बढ़ाओ का नारा शर्मिंदा हो रहा है। जिस राज्य से इसकी शुरूआत की गई थी वही हरियाणा सबसे अधिक असुरक्षित हो चला है। वह यौन हिंसा का हब बन गया है। शहर से लेकर गाँव तक असुरक्षा का महौल बन गया है। बलात्कार, कन्या भ्रूण हत्या और एसिड अटैक भारत की सामाजिक त्रासदी बन गया है। हालात यहाँ तक पहुँच गए हैं कि राज्यों को फांसी जैसे कानूनों पर विचार करना पड़ रहा है। हरियाणा इस तरह की घटनाओं को लेकर सुर्खियों में है। बलात्कार रोकने के लिए अब तक के सारे कानून बौने साबित हो रहे हैं। हरियाणा सरकार दुष्कर्म के खिलाफ फांसी की सजा पर विचार कर रही है। मध्यप्रदेश ने बलात्कार के लिए फांसी का कायदा पहले से बना रखा है। रेप के मेरिट वाले राज्यों में यूपी भी सुमार है। बलात्कार का मनोविज्ञान समझने में मनोचिकित्सक, सरकार और समाज सभी फेल हो चुके हैं। देश में कानून के बाद भी इस त्रासदी का हल होता नहीं दिख रहा।

आधुनिक भारतीय समाज की सबसे बड़ी विकृति 16 दिसम्बर 2012 की घटना थी, जो निर्भया से जुड़ी थी। इस हादसे ने देश की छवि पूरी दुनिया में धूमिल की। जिस पर संयुक्तराष्ट्र संघ ने भी चिंता जताई। उस समय की संप्रग सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए एक हजार करोड़ रुपयों का निर्भया फंड भी शुरू किया। फंड के सही इस्तेमाल की जिम्मेदारी अलग-अलग मंत्रालय को सौंपी गई। जिसका इस्तेमाल राज्यों की सरकारें बेटियों के हितों को ध्यान में रखते हुए कर सकती हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि निर्भया फंड में दो हजार करोड़ रुपए की वृद्धि होने के बावजूद जमीनी स्तर पर महिलाओं की सुरक्षा पर कोई ठोस नीति नहीं बन पाई। 2014 में एक अध्ययन में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए जिसमें पता चला कि देश भर में 52 फीसदी लड़कियों के साथ घर से स्कूल जाते या वापस आते हुए छेड़छाड़ होती है। जबकि स्कूल या कॉलेज जाते हुए 32 फीसदी लड़कियों का पीछा किया जाता है।

हरियाणा बलात्कार को लेकर सुर्खियों में है। बेटियों के लिए वह सबसे असुरक्षित राज्य साबित हो रहा है। हरियाणा पुलिस ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक साल 2017 में 30 नवंबर तक दुष्कर्म के कुल 1238 मामले दर्ज किए गए। यानी हर दिन 3.69 दुष्कर्म के मामले दर्ज हुए। इस दौरान प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 9523 मामले दर्ज हुए थे। जबकि 44 फीसदी नाबालिग लड़कियां शिकार हुईं। हरियाणा के पड़ोसी राज्य पंजाब और हिमाचल प्रदेश के अलावा राजस्थान में बच्चियों के साथ दरिंदगी के मामले कम हुए। नाबालिग बालिकाओं के साथ दुष्कर्म के मामले में मध्यप्रदेश देश में अव्वल स्थान पर है। मध्यप्रदेश में इस तरह के 2479 मामले दर्ज किए गए। जबकि इस मामले में महाराष्ट्र 2310 और उत्तर प्रदेश 2115 के आंकड़े के साथ क्रमश: दूसरे और तीसरे स्थान पर है। पूरे भारत में 16,863 नाबालिग बालिकाओं के साथ दुष्कर्म के मामले दर्ज किए गए हैं। 2016 में दुष्कर्म के कुल मामले 39,068 हुए । जिसमें 18 साल से कम आयु की लड़कियों की संख्या 16,863 थी । जबकि 6 साल से कम आयु की लड़कियों के साथ दुष्कर्म के 520 मामले हुए। 6 से 12 साल के बीच की 1596 मासूम ऐसी घटना की शिकार हुईं । 12 से 16 साल की उम्र में यह आंकड़ा चार अंकों यानी 6091 पहुँच गया। 16 से 18 साल की लड़कियों से जुड़ी 8656 घटनाएं हुईं।

भारत में चार साल पूर्व की तेजाबी हमले की जरा तस्वीर देखिए। आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2012 में जहां 85 महिलाएं एसिड अटैक का शिकार हुईं थीं। वर्ष 2013 में आंकड़ा बढ़कर 128 और 2014 में 137 तक पहुंच गया। मामले में कम से कम 10 साल जेल की सजा का प्रावधान है, जिसे उम्र कैद में भी तब्दील किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में एसिड की खरीद-फरोख्त पर रोक लगाने की बात भी कही थी, लेकिन कड़वी सच्चाई ये है कि आज भी पूरे देश में बिना किसी रोक-टोक के एसिड की बिक्री हो रही है। अदालत ने यह भी कहा था कि एसिड अटैक की पीड़ित को ना केवल मुफ्त इलाज मिले बल्कि उसे कम से कम 3 लाख रुपए का मुआवजा भी दिया जाए।

महिला सशक्तिकरण की दिशा में प्रगति हुई है, लेकिन बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ प्रयासों की और अधिक जरूरत है। लिंगानुपात के मोर्चे पर देश ज्यादा प्रगति नहीं कर पाया है। 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत का लिंग अनुपात प्रति 1,000 पुरुषों पर 943 महिलाओं का है। प्रति 1000 पुरुषों पर 879 महिलाओं के आंकड़ों के साथ, 28 राज्यों में हरियाणा का प्रदर्शन सबसे खराब है। इस संबंध में इसके बाद जम्मू-कश्मीर 889, सिक्किम 890, पंजाब 895 और उत्तर प्रदेश 898 का स्थान रहा है। भारतीय लिंग अनुपात प्रति 1000 पुरुषों पर कम से कम 950 महिलाओं का होना चाहिए। अप्रैल, 2016 को संसद में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, 2010-12 में, भारत में जन्म के समय लिंगानुपात 908 था जो 2011-13 में सुधर कर 909 हुआ है। भारत में 2011 से 13 में 21 बड़े राज्यों में, प्रति 1,000 पुरुषों पर 864 महिलाओं के आंकड़ों के साथ, हरियाणा की स्थिति बेहद खराब है। पंजाब 867, उत्तर प्रदेश 878, दिल्ली 887, राजस्थान 893 और महाराष्ट्र 902, अन्य राज्यों में से हैं जिनका प्रदर्शन भी खराब है। लेकिन प्रति 1,000 पुरुषों पर 970 महिलाओं के आंकड़ों के साथ छत्तीसगढ़ का जन्म के समय भारत में सबसे अनुकूल लिंग अनुपात है। इसके बाद केरल 966 और कर्नाटक 958 का स्थान है। 2015-16 के अनुसार, पिछले 30 वर्षों में बाल लिंग अनुपात में जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र और हरियाणा में सबसे निम्नतर गिरावट हुई है। देश में कन्या भ्रूण हत्या रोकने वाले कानून भी बेअसर साबित दिखते हैं। दुष्कर्म और एसिड अटैक की बात ही छोड़िए। यह प्रमाणित हो गया है कि कानून के भय से किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। समाज में जब तक हर व्यक्ति का नैतिक विकास नहीं होगा, इस तरह की घटनाओं को रोकना सम्भव नहीं दिखता। सरकारों को स्कूलों में नैतिक शिक्षा और सामाजिक सम्बंधी विषयों पर अधिक जोर देना चाहिए। तभी हम देश की युवा पीढ़ी को सहेज पाएंगे। अगर वक्त रहते हम नहीं चेते तो यह समस्या नासूर बन जाएगी। बेटियों को हरहाल में बचाना होगा, उन्हें सुरक्षित महौल देना होगा। तभी समाज सुरक्षित रह पाएगा। इस पर समाज, संसद और परिवार को सोचना होगा।

Updated : 24 Jan 2018 12:00 AM GMT
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