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कातिल मानसिकता ने ली चंदन की जान

कातिल मानसिकता ने ली चंदन की जान
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- कृष्ण प्रभाकर उपाध्याय

उत्तरप्रदेश का कासगंज न तो पाकिस्तान में है और न ही आतंक प्रभावित्मी कश्मीर में। इसके बावजूद यहां के एक युवा को गणतंत्र दिवस पर निकाली गयी तिरंगा यात्रा के दौरान इसलिए गोली खानी पड़ी, क्योंकि कुछ लोगों को उसके द्वारा लगाया जा रहा ‘वंदेमातरम्’ का नारा पसंद नहीं था। ‘तिरंगा यात्रा’ के दौरान कासगंज में जो कुछ हुआ, वह एक स्वाधीन राष्ट्र के लिए ‘शर्मनाक’ तो है ही, भारत की राष्ट्रीय अस्मिता से बैर रखने वालों के हौसले दर्शाने वाला भी है।

कासगंज की साम्प्रदायिक हिंसा को सुनियोजित मानने के अनेक कारण हैं। वैश्य एकता परिषद के अध्यक्ष सुमन्त गुप्ता के शब्दों में कहें तो- अगर घटना सुनियोजित नहीं थी तो बलवाइयों के हाथों में अचानक इतने हथियार, तेजाब की बोतलें व रेलवे लाइन पर बिछाये जाने वाले पत्थर कहां से आ गये? कासगंज में कथित रूप से जलायी गयी एक मस्जिद की आग बुझाने के बाद पुलिस द्वारा निकाले गये सामान में मिली बीयर की की खाली केन अपनी कहानी खुद बयां कर जाती है। कासगंज में हिंसा की शुरुआत शुक्रवार की सुबह 9.20 बजे उस समय हुई, जब कुछ युवाओं की टोली अपनी तिरंगा यात्रा में करीब 3 दर्जन बाइकों पर सवार होकर स्थानीय प्रभूपार्क से हुल्का मुहल्ला बड्डूनगर की ओर बढ़ती है। बड्डूनगर मुस्लिम बहुसंख्यक मिश्रित आबादी वाला क्षेत्र है। यहां उनकी यात्रा को बीच में ही रोक दिया गया। कहा जा रहा है कि वहां रहने वाले लोग भी तिरंगा फहराने की तैयारी कर रहे थे और इस काम में व्यवधान के कारण ही इन युवकों को रोका गया।

पहली बात तो ये है कि महज आठ से दस मीटर चौड़ी सार्वजनिक सड़क को घेरकर तिरंगा फहराने का क्या मतलब है और अगर ऐसा है भी तो तिरंगा लेकर निकली युवाओं की टुकड़ी को वहां से आगे क्यों नहीं जाने दिया गया। दूसरी अहम बात ये भी है कि क्या तिरंगा फहराने के आयोजन में लगे गली के लोग हथियारों से सुसज्जित होकर, तेजाब की बोतलें व रेलवेलाइन के पत्थरों को लेकर तिरंगा फहराने वाले थे? अगर ऐसा नहीं है तो विवाद शुरू होते ही वहां ये हथियार वहां कैसे आ गये? उन पर तेजाब कहां से और क्यों फेंका गया? इन युवाओं पर फायरिंग क्यों व किसने की? तीसरी बड़ी बात ये भी है कि विवाद के बाद तिरंगा यात्रा निकालने वाले युवा जब अपनी बाइक छोड़ वहां से भागकर बिलराम चैराहे पहुंचे तो उनकी वहीं छोड़ी गयी बाइकों में तोड़फोड़ कर उन्हें आग के हवाले करना किस ‘झंडारोहण’ का विषय था? साथ ही यदि गली के लोग तिरंगा फहराने के लिए वहां इकट्ठा हुए थे तो फिर वहां ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’ के नारे लगाने का क्या औचित्य था? वास्तव में कासगंज की घटना का पहला सच यही है कि यह एक योजनाबद्ध प्रायोजित हिंसा थी और यह भारत सरकार, उत्तरप्रदेश सरकार व हिन्दू राष्ट्रवादियों को अपनी ताकत का एहसास कराने के लिए रची गयी थी।

हिंसा के इस पहले अध्याय के बाद दूसरा अध्याय इस जगह से करीब 300 मीटर दूर तहसील वाली गली में सुबह 11 बजे शुरू हुआ। बताते हैं कि इस हिंसा के दौरान वहां के कन्या विद्यालय में छात्राओं के फंसे होने की सूचना पर उन्हें सुरक्षित निकालने के उद्देश्य से ही अभिषेक उर्फ चंदन व उसके साथी उस गली की ओर गये थे। यहां करीब 11.30 बजे उसे गोली मार दी गयी। कोई बताए- यहां फायरिंग कर इस निर्दोष युवक की जान लेने का क्या कारण था? यहां तो तिरंगा यात्रा या कथित झंडारोहण का भी प्रश्न नहीं था।
पहली घटना के 2 घंटे बाद अपने एक साथी को गोली लगने के बाद और हजारों लोगों के घंटाघर बारादरी के पास इकट्ठा होने के बावजूद इस पक्ष की ओर से उकसावे की कार्यवाही किये जाने की कोई जानकारी नहीं मिलती है। न ही किसी हिन्दूबहुल क्षेत्र में मुसलमानों के साथ दुर्व्यवहार होने की खबर आई। वरन् राष्ट्रवादी संगठन तो हर जगह इस उत्तेजना शांत करने की कोशिश करते नजर आये। यही नहीं मृतक चंदन के परिजनों ने भी प्रशासन के आग्रह पर उसके शव को घर लाना टाल दिया ताकि उत्तेजना और न भड़क उठे। चंदन का शव रात करीब 8 बजे उसके घर लाया गया।

शनिवार को भी प्रशासन के आग्रह पर चंदन के परिजनों, भाजपा सांसद व विधायकों तथा अन्य गणमान्यों ने चंदन की अन्त्येष्टि का समय 8 बजे की जगह 7 बजे कर लिया। प्रशासन के आग्रह पर ही कछला गंगाघाट पर शवदाह करने के स्थान पर काली नदी के किनारे अन्त्येष्टि की गई। उसके परिजन भी चंदन को ‘शहीद’ का दर्जा देने, भारी-भरकम मुआवजा देने या घर के सदस्य को नौकरी देने जैसी मांग को लेकर उपद्रव नहीं कर रहे थे, बल्कि चंदन को इंसाफ दिलाने की मांग को लेकर मात्र धरने पर बैठे थे। बाद में सांसद के मुख्यमंत्री से बात कर लेने तथा लोगों को आश्वस्त करने के बाद अन्त्येष्टि कार्य भी शांतिपूर्वक सम्पन्न हुआ। फिर ऐसा क्या हुआ कि 10 बजते-बजते शहर में हिंसा भड़क उठी? अब इस घटना के लिए कासगंज के जिलाधिकारी व पुलिस अधीक्षक पर दोष मढ़ा जा रहा है। निश्चय ही ये अधिकारी घटना का पूर्वाभास न कर पाने, घटना के घटित होने के बाद तत्काल प्रभावी कार्रवाई कर स्थित पर नियन्त्रण न कर पाने के दोषी हैं। लेकिन अगर इन्होंने एतिहात के तौर पर भी इस मिश्रित जनसंख्या वाले क्षेत्र में अतिरिक्त पुलिस बल लगाया होता तो इसे ‘मोदी-योगी के राज में संदिग्ध समझे जा रहे हैं मुसलमान’ कहकर प्रचारित करने से कौन रोकता?

दंगों के दौरान दोनों ही पक्षों की लाखों की सम्पत्ति आग के हवाले कर दी गयी। करीब 50 करोड़ का कारोबार ठंप हो गया। पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों की भागदौड़ बढ़ी। लोगों ने अपना सुख-चैन खोया। आखिर क्यों? क्या इसके पीछे एक समुदाय विशेष की टकराव की मानसिकता कारण नहीं? एक-दूसरे पर आरोप लगाना आसान है। कासगंज हिंसा पर भी एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप होने लगे हैं। सबको अपनी-अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकनी है। किन्तु लाख टके का अनुत्तरित सवाल यही है कि स्वाधीनता के 70 वर्ष बाद भी राष्ट्र की अस्मिता से जुड़े तिरंगा, बंदेमातरम् व जन गण मन गायन, विद्यालयों की प्रार्थनाएं, उपनिषदों के सुभाषित आदि क्या इसीलिए विवाद का विषय बने रहेंगे कि इन्हें एक खास समुदाय पसन्द नहीं करता? ‘चंदन’ वंदेमातरम् कहता हुआ एक खास समुदाय के उपद्रवियों की गोली का शिकार हुआ। ऐसे में जनसमुदाय द्वारा उसकी तिरंगे में लपेटकर निकाली गयी शवयात्रा उसके प्रति जनसामान्य के साथ मां भारती की भी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि है। किन्तु उसके हत्यारों को दण्ड दिये बिना, राष्ट्रविरोधियों को ऐसे कृत्यों के लिए प्रताड़ित किये बिना क्या उसकी आत्मा को कभी भी न्याय मिल सकेगा?

Updated : 30 Jan 2018 12:00 AM GMT
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