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पाकिस्तान का प्रतिबंधों से बचने का स्वांग

-सुशील कुमार सिंह

अब पाकिस्तान के किसी भी कदम से हैरत नहीं होती चाहे वह आतंकियों के मामले में झूठ पर झूठ बोले या फिर भारत के दिये गये सबूतों को नकारे पर दु:ख इस बात का जरूर है कि सीमा पर भारतीय सेना के शहीद होने का सिलसिला किसी भी सूरत में नहीं रुक रहा है। हाल ही में जम्मू के सुंजवां में सेना के ब्रिगेड पर जिस प्रकार फिदायीन हमला किया गया, उसे देखकर सितम्बर 2016 की उरी में सेना के शिविर पर हुये हमले की याद ताजा हो गयी। उरी में उन दिनों 18 सैनिक शहीद हुए थे जबकि सुंजवां में भी 6 जांबाज सैनिकों को देश ने खो दिया। गौरतलब है कि उरी की घटना को हफ्ता मात्र ही बीता था कि भारतीय सैनिकों ने पीओके में घुस कर आतंकियों के अड्डे नेस्तनाबूत किये और उनके लॉचिंग पैड को भी बर्बाद किया था साथ ही 40 से अधिक आतंकी उनके निशाने पर भी आये थे। बावजूद इसके पाकिस्तान की सेहत पर इसका कोई असर नहीं पड़ा मगर एक खास बात यह है कि बीते कुछ महीनों से सीमा पर पाकिस्तान की हरकतों का उसी अंदाज में भारतीय सेना जवाब दे रही है। पाकिस्तान की सेना समेत आतंकी और आईएसआई की धूर्तता इतनी अव्वल दर्जे की है कि हम सेना खोने के सिलसिले को थाम नहीं पा रहे हैं। वैसे पाकिस्तान धोखे और मक्कारी पर चलते हुए आतंक के मामले में दुनिया से झूठ बोलता रहा पर अब उसकी कलई खुल गयी है। बीते 6 महीनों से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पाकिस्तान की इस बात के लिये लानत-मलानत करते रहे कि वह आतंकियों का शरणगाह है। बावजूद इसके पाकिस्तान के कान पर जूं नहीं रेंगी। बाद में ट्रंप ने तो यहां तक कहा कि अगर पाकिस्तान भीतर फैले आतंकवाद को खत्म नहीं करता है तो यह काम अमेरिका कर देगा। अन्तत: कुछ होता न देख डोनाल्ड ट्रंप ने उसे दी जाने वाली सहायता राशि पर फिलहाल रोक लगा दी है।

इस तथ्य को गैरवाजिब नहीं कहा जा सकता कि पाकिस्तान के भीतर आतंकी संगठन दिन दूनी रात चौगुनी की तर्ज पर विकसित हुए हैं। इन्हीं आतंकियों में एक खूंखार आतंकी हाफिज सईद है तो दूसरा अजहर मसूद है। हालांकि फेहरिस्त इकाई-दहाई में न होकर सैकड़ों की तादाद में है। मुम्बई हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद और उसके आतंकी संगठन जमात-उद-दावा पर इन दिनों एक नया फैसला सामने आया है और ऐसा अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों के डर के चलते हुआ है। दरअसल फ्रांस में आतंकवाद को आर्थिक मदद के खिलाफ एक अहम बैठक होने जा रही है जिसे देखते हुए पाकिस्तान को यह डर है कि 18 से 23 फरवरी तक पेरिस में चलने वाली फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स की इस सालाना बैठक में उसके खिलाफ कोई कड़े कदम न ले लिये जायें। गौरतलब है कि अमेरिका पाकिस्तान पर बीते कई महीनों से इस बात के लिये दबाव बनाये हुए है कि पाकिस्तान देश के भीतर आतंकवाद समाप्त करे। इसी को लेकर उसने इसे फण्डिंग करने से भी मना किया था। अमेरिका ने पाकिस्तान को वैश्विक आतंकियों की फण्डिंग की सूची में डालने को लेकर अन्तर्राष्ट्रीय संगठन एफएटीएफ से भी सम्पर्क साधा। जाहिर है इस कदम से पाकिस्तान सहमा हुआ है और इसी के चलते बैठक से ठीक पहले गुपचुप तरीके से अपने आतंकवाद रोधी कानून में संशोधन कर दिया है जिसके तहत आतंकी सरगना हाफिज सईद के संगठन जमात-उद-दावा, फलाह-ए-इंसानियत और संयुक्त राष्ट्र की सूची में शामिल कुछ अन्य आतंकी संगठनों को जो उसके देश के भीतर हैं आतंकी संगठन मान लिया है। सवाल है कि क्या पाकिस्तान के इस बनावटी कदम से एफएटीएफ के फैसले पर कोई असर पड़ेगा। हालांकि पाकिस्तान की आदतों को देखते हुए शायद ही यह उसके पक्ष में जायेगा। जिस तरह आतंक की पाठशालायें पाकिस्तान ने अपने यहां खोली और हाफिज सईद और अजहर मसूद और लखवी समेत तमाम आतंकी गुर्गों को पाला-पोसा उससे साफ है कि मात्र इतने से उसका काम नहीं चलेगा।

गौर करने वाली बात यह भी है कि अमेरिका और भारत पाक में पसरे आतंकी नेटवर्क को नेस्तनाबूत करने को लेकर एड़ी-चोटी का जोर लगाये हुए हैं। मनी लॉड्रिंग और टेरर फण्डिंग पर नजर रखने वाली एफएटीएफ की काली सूची में सम्भव है कि इस बार पाकिस्तान का नाम आयेगा जबकि पाकिस्तान अपनी छवि साफ-सुथरी दिखाने की फिराक में है। गौरतलब है कि साल 2012 के फरवरी में एफएटीएफ की काली सूची में पाकिस्तान का नाम डाला गया था और तीन साल तक वह इसमें बना रहा पर अब उसकी एक बार फिर यहां जगह बनती हुई दिख रही है। एक लिहाज से देखा जाय तो पाकिस्तान दुनिया की आंखों में खूब धूल झोंक रहा है साथ ही आतंक का पूरा उपयोग भारत के खिलाफ कर रहा है जिसकी कीमत आज भी देश चुका रहा है।

जमात-उद-दावा समेत कई आतंकियों और उनके संगठनों को लेकर जिस तरह प्रतिबंध वाली हड़बड़ी उसने दिखाई है उसे देखते हुए अब वह दुनिया को बेवकूफ शायद ही बना पाये। खास बात यह भी है कि आतंकियों पर पाक द्वारा खेला गया दांव पुख्ता नहीं है क्योंकि प्रतिबंध एक अध्यादेश के माध्यम से है जो कुछ समय बाद भंग हो जायेगा क्योंकि इसकी अपनी समय सीमा होती है। जाहिर है प्रतिबंधित आतंकी और संगठन पुन: बहाल हो जायेंगे। यदि पाकिस्तान उसे कानून में बदल दे तब यह स्थायी हो सकता है पर वह ऐसा क्यों करेगा और क्या कर पायेगा। सभी जानते हैं कि पाकिस्तान में नाम मात्र का लोकतंत्र है वहां की सरकार का एक हाथ सेना और आईएसआई के कब्जे में तो दूसरा आतंकियों ने दबोच रखा है। कहा जाय तो बनावटी लोकतंत्र और कमजोर निर्णय वाली सरकार इस्लामाबाद में गुजर-बसर करती है।

भारत की यह कोशिश रही है कि किसी भी सूरत में कश्मीर समेत पीओके में आतंकियों की पैठ न होने पाये पर इस मामले में सफलता नहीं मिल पायी है। नवम्बर 2016 में नोटबंदी के अन्तर्गत गिनाये गये कारणों में एक कारण आतंकियों के पास जमा धन पर भी प्रहार बताया गया था। देखा जाय तो कश्मीर घाटी आतंकियों के बोझ से बरसों से दबी हुई थी। जिसे आॅपरेशन आॅल आॅउट के तहत हाल ही में 250 से अधिक आतंकियों को ढेर कर इस बोझ से घाटी को हल्का तो किया गया पर शायद पूरी तरह मुक्त नहीं। असल में घाटी को आतंकियों से ही नहीं अलगाववादियों से भी डर है। यहां हुर्रियत के लोग भी पाकिस्तान परस्ती का नमूना पेश करते रहते हैं। बरसों से कश्मीर जल रहा है और अलगाववादी उसमें घी डालने का काम कर रहे हैं। बुरहान वानी जैसे दहशतगर्दों को शहीद बताने वाले और पाकिस्तान में काला दिवस मनाने वाली वहां की सरकार यह भूल गयी कि जांबाज और मक्कार में अंतर होता है। वैसे एक शिकायत यह भी है कि मौजूदा महबूबा मुफ्ती सरकार भी इस मामले में फिसड्डी है। उनका हालिया बयान कि पाकिस्तान से बातचीत ही रास्ता है गलत तो नहीं पर सही भी नहीं है। एक तरफ सीमा पर लगातार सीज फायर का उल्लंघन और धोखे से सेना के ब्रिगेड और कैम्प पर पाकिस्तान हमला कर रहा है तो दूसरी तरफ बातचीत की बात कही जा रही है। महबूबा मुफ्ती को शायद यह नहीं पता कि पाकिस्तान स्वयं बातचीत चाहता ही नहीं है। उसे तो बस सीमा पर गोले दागने का शौक है। हालांकि महबूबा मुफ्ती के इस कदम में उनके साथ सरकार में शामिल भाजपा भी कुछ हद तक दोषी प्रतीत होती है। सरकार में बने रहने की महत्वाकांक्षा के चलते केन्द्र की मोदी सरकार कश्मीर में कठोर कदम उठाने से हिचकती रही। हालांकि आॅपरेशन आॅल आॅउट एक अच्छा कदम है। फिलहाल बदली स्थिति को देखते हुए भारत सरकार की इसलिए तारीफ की जा सकती है कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान को झुकाने में कुछ हद तक कामयाब तो हुई है।

(लेखक वाईएस लोक प्रशासन शोध प्रतिष्ठान के निदेशक हैं)

Updated : 16 Feb 2018 12:00 AM GMT
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