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खोजनी होगी चीन की काट

खोजनी होगी चीन की काट
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-सुशील कुमार सिंह

अगर भारत यह समझ रहा है कि डोकलाम से चीन का पीछे हटना विवाद का पूरा निपटारा था तो वह शायद सही नहीं समझ रहा है और यदि वह यह समझ रहा है कि मालदीव में उत्पन्न संकट को लेकर चीन कोई चालबाजी नहीं करेगा तो भी समझ को उचित करार नहीं दिया जा सकता। लाख टके का सवाल है कि सीमा विवाद के मामले में चीन का रवैया कभी भी उदार नहीं था। जून 2017 में उत्पन्न डोकलाम विवाद का भले ही निपटारा जुलाई के अन्त में आशा के अनुरूप हो गया हो पर उसे लेकर चीनी चाल अभी भी जारी है। सूचना है कि चीन भूटान को डोकलाम के बदले जमीन दे रहा है। गौरतलब है कि डोकलाम मुद्दे पर चीन का पीछे हटना उसके मात खाने जैसी बात रही है। ध्यातव्य हो कि अगस्त 2017 के प्रथम सप्ताह में चीन में ब्रिक्स देशों की बैठक होनी थी स्थिति को देखते हुए चीन ने इस मामले का पटाक्षेप करना ही सही समझा। उन दिनों इजराइल से लेकर जापान तक और अमेरिका ने भी डोकलाम विवाद पर भारत का ही साथ दिया था। बावजूद चीन जिस तरीके से धौंस जमा रहा था और युद्ध के मुहाने पर अपने को खड़ा किया था उससे साफ लग रहा था कि डोकलाम उसके लिए हठ बन गया है। अलबत्ता पीछे हटने के मामले में भारत की कूटनीतिक विजय हुई है पर चीन की चाल को समझना बड़े पैमाने पर बुद्धि खर्च करने के बराबर है। इन दिनों चर्चा है कि भूटान के लिए विवादित जमीन के बदले चीन उत्तर-पूर्व या उत्तर-पश्चिम में ज्यादा जमीन छोड़ने का प्रलोभन दे रहा है। इतना ही नहीं भूटान को बुनियादी ढांचे के लिए एकमुश्त राशि पेशकश करने वाली बात भी सामने आ रही है। यदि इसमें सच्चाई है तो ड्रेगन की यह चाल बेहद गम्भीर है और इसकी काट खोजना भारत की जिम्मेदारी है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि कहीं चीन भूटान को अपने जाल में उलझाकर डोकलाम जैसे अहम क्षेत्र को हथिया न ले। यदि ऐसा हुआ तो उत्तर-पूर्व समेत उत्तर भारत उसकी नजर में आसानी से बना रहेगा।
कूटनीति के जानकार भी मानते हैं कि चीन जब अपनी चाल को पीछे खींचता है तो दूसरे रास्ते से उससे बड़ी चाल चलता है। तरह-तरह की रणनीतिक चाल से भारत को घेरने का फिलहाल वह प्रयास कर रहा है। भारत शान्ति और संयम से भरा देश है जबकि चीन कुटिल चाल से लबालब रहता है। वह भूटान पर इस तरह से दबाव बना रहा है कि अगर उसने चीन के प्रलोभनों को स्वीकार नहीं किया तो उसे सामरिक या रणनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। अब भारत को दो प्रकार की कसरत करनी है पहला यह कि वह भूटान को इन दबाव से मुक्त करे, दूसरा चीन के इस बदले रूख के बदले में कोई कूटनीतिक कदम उठाये। वैसे दृष्टिकोण तो यह भी है कि भारत भूटान में अपनी विकास योजनाओं का आकार बढ़ाने के साथ उसे सुरक्षा का भाव देने की कोशिश में लगा हुआ है। दो टूक यह भी है कि चीन की चतुराई इसलिए हतप्रभ करती है कि वह भारत को नुकसान पहुंचाने का कोई अवसर छोड़ता नहीं जबकि भारत चीन की जरा सी नरमी देखकर बेपरवाह हो जाता है। कहा तो यह भी जा रहा है कि चीन भूटान के विकास के लिए करोड़ों डॉलर की राशि की पेशकश भी कर चुका है। सच्चाई यह है कि वह भूटान से दोस्ती गांठने की फिराक में है ताकि भारत को दूर किया जा सके। देखा जाय तो चीन जिस तरह नेपाल पर नजरें गड़ाये हुए है और इन दिनों हिन्द महासागर में स्थित मालदीव में व्याप्त संकट पर भारत की तुलना में सघन चाल चलने में लगा हुआ है उसी तर्ज पर भूटान में ऐसी राह बनाने की कोशिश में है कि भारत दरकिनार हो जाय। अगर भूटान में किसी तरह वह दखल बढ़ाने में कामयाब होता है तो यह भारत की रणनीतिक और कूटनीतिक हार होगी। जाहिर है इसकी काट खोजनी होगी।

विचारशील संदर्भ यह भी है कि नेपाल में नई सरकार के0पी0 ओली के नेतृत्व में हाल ही में बनी है जिनकी चीन से बड़ी निकटता है। वैसे ओली चीन से निकटता बनाकर भारत से ज्यादा लाभ उठाने को लेकर भी जाने जाते हैं। गौरतलब है कि साल 2015 के सितम्बर में जब नेपाल ने नये संविधान को अपनाया था तब मधेशियों के अधिकारों को लेकर बड़ा आन्दोलन नेपाल के तरायी इलाकों में छिड़ा हुआ था। सुशील कोइराला के स्थान पर ओली प्रधानमंत्री बने थे और आरोप यह मढ़ा गया था कि भारत के इशारे पर यह सब हो रहा है जबकि सच्चाई यह है कि यह अव्वल दर्जे का झूठ था। दरअसल पौने तीन करोड़ नेपालियों में सवा करोड़ मधेशी हैं जो तराई के इलाके में रहते हैं ये मूलत: भारत के हैं। संविधान में अपने अधिकारों को लेकर इन्होंने चिन्ता जतायी और सड़कों पर जाम लगाया, रसद सामग्री शेष नेपाल में पहुंचने नहीं दी फलस्वरूप तत्कालीन प्रधानमंत्री ओली ने धमकी दी कि वह चीन की तरफ झुक सकते हैं खास यह भी है कि समस्या समाप्ति के बाद वे भारत आये थे परन्तु उसके पहले चीन की यात्रा पर गये थे। मौजूदा समय में एक बार फिर नेपाल के प्रधानमंत्री ओली हैं। ऐसे में भारत को कई मोर्चों पर चीन से सावधान रहने की जरूरत पड़ेगी। स्थिति और बदलती परिस्थिति को भांपते हुए भारत का यह अभ्यास होना चाहिए कि पड़ोसी देशों के साथ बेहतर सम्बंध की एक बार फिर पुनरावृत्ति और चीन के साथ गहरी कूटनीति पर अमल किया जाय।

ताजा घटनाक्रम में मालदीव संकट के बीच पूर्वी हिन्द महासागर में चीनी युद्ध पोतों की पहुंच चिन्ता का विशय है। वैसे भारत सरकार का कहना है कि मालदीव के निकट कोई चीनी युद्ध पोत नहीं है। सारी घटना पर नजर रखी जा रही है हालांकि यह कहा गया है कि कुछ दिनों पहले विध्वंसक पोत और एक फ्रिजेट हिन्द महासागर के पूर्वी हिस्से में देखा गया था। वैसे देखा जाय तो दक्षिण चीन सागर की तरफ जाने के क्रम में ये सुण्डा स्ट्रेट से वहां आये थे। इस सबके बावजूद एक बात यह भी है कि पाकिस्तान के बाद मालदीव चीन का सर्वाधिक कर्जदार देश है। वहां के मौजूदा राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन चीन की तरफ झुकाव रखते हैं जबकि श्रीलंका में रह रहे मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद का झुकाव भारत की ओर है। मालदीव में उत्पन्न संकट पर चीन अपनी सफल चाल चलना चाहता है और हिन्द महासागर में अपनी पैठ बनाने की फिराक में है। भारत को यहां भी उसकी इस कुटिल चाल का वाजिब जवाब रखना होगा। हांलाकि भारत इस मामले में बहुत चौकन्ना है पर यह तभी काम आयेगा जब चीन की चाल से अधिक स्पीड से भारत की कूटनीति चलेगी। दो-तीन प्रश्न खड़े होते हैं कि दक्षिण एशिया के दो देश एक मालदीव और दूसरे भूटान पर चीन लगातार डोरे डाल रहा है और भारत इन दोनों के बीच सधा हुआ कदम उठाना चाहता है पर सफलता तभी मानी जायेगी जब चीन यहां असफल होगा। नेपाल से भारत के सम्बंध अच्छे हैं परन्तु ओली का झुकाव थोड़ा चीन की ओर रहता है सम्भव है चीन की नजरों से नेपाल को भी दागदार होने से बचाना है। नेपाल, भूटान और मालदीव सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण देश हैं। दक्षिण चीन सागर में एकाधिकार का मंसूबा रखने वाला चीन मालदीव के सहारे हिन्द महासागर में भी एंट्री मारना चाहता है जाहिर है उपरोक्त की काट खोजना भारत के लिए चुनौती है पर नामुमकिन नहीं।

(लेखक वाईएस लोक प्रशासन शोध प्रतिष्ठान के निदेशक हैं)

Updated : 23 Feb 2018 12:00 AM GMT
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