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दिल्ली में राष्ट्रपति शासन में अब देर क्यों ?

दिल्ली में राष्ट्रपति शासन में अब देर क्यों ?
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दिल्ली के मुख्य सचिव अंशु प्रकाश को मुख्यमंत्री आवास पर विधायकों से पिटवाकर मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली की शासन व्यवस्था को पूरी तरह ठप कर दिया है। सवाल यह है कि आखिरकार क्यों केन्द्र और दिल्ली सरकार मिलकर काम नहीं कर पा रहे हैं? जनता इस यक्ष प्रश्न का उत्तर जानना चाहती है। इस सवाल का जवाब तभी मिलेगा, जब हम दिल्ली विधानसभा और दिल्ली की सरकारों के इतिहास को थोड़ा सा खंगालेंगे।
आजादी के बाद दिल्ली में 1952 में पहली बार विधानसभा चुनाव हुए थे। तब चौधरी ब्रह्मप्रकाश 1952 से 1955 तक मुख्यमंत्री रहे। 1956 में दिल्ली विधानसभा को भंग कर इसे केंद्र शासित प्रदेश घोषित किया गया। 1966 में दिल्ली को महानगर पालिका का रूप देकर विधानसभा को मेट्रोपोलिटन काउंसिल और मुख्यमंत्री के समकक्ष चुने हुए नेता को चीफ मेट्रोपोलिटन काउंसिलर का पदनाम दिया गया। 1991 में संविधान संशोधन करके इसे पुनः राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र घोषित किया गया और 70 सदस्यों की नयी विधानसभा गठित की गयी।

नरसिंह राव के साथ खुराना

दिल्ली विधानसभा के लिए वर्ष 1993 में चुनाव हुए। भाजपा को बहुमत मिला और मदनलाल खुराना मुख्यमंत्री बने। तब केन्द्र में कांग्रेस के पीवी नरसिंह राव की सरकार थी। तब से लेकर 2014 तक दिल्ली में केन्द्र सरकार और राज्य सरकार सामान्य ढंग से मिल-जुलकर ही काम कर रही थीं। कोई अनावश्यक तकरार नहीं था। केन्द्र और राज्य में किसकी सरकार है, यह मसला कभी नहीं उभरा। जब शीला दीक्षित मुख्यमंत्री थीं, तब वो अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के साथ मिलकर दिल्ली का विकास कर रही थीं। सारे काम आपसी बातचीत से हल हो रहे थे।

‘आप’आयी, अराजकता लायी

पर दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनते ही अराजकता और अव्यवस्था फैलने लगी। हद तो तब हो गई जब दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव अंशु प्रकाश की मुख्यमंत्री ने अपने निजी सहायक द्वारा सरकारी आवास पर मध्य रात्रि में बुलवाकर गुंडे किस्म के विधायकों द्वारा पिटाई करवा दी। देशभर में कहीं भी किसी मुख्यमंत्री के आवास पर किसी वरिष्ठ आईएएस अफसर को सत्तासीन दल के विधायकों द्वारा मध्य रात्रि में पिटवाने की बात पहले कभी नहीं सुनी गयी। ऐसा तो तानाशाह का स्वरूप माने जाने वाले मायावती, लालू, जयललिता या बंसीलाल तक ने नहीं किया। लोकतंत्र का इससे बड़ा माखौल क्या हो सकता है? आखिर हम दुनिया को क्या संदेश दे रहे हैं? पूरी दुनिया दिल्ली सरकार पर थू-थू कर रही है। मोटा-मोटी संकेत मिल चुके हैं कि घोर अराजक हो चुकी दिल्ली सरकार अब केन्द्र सरकार से लेकर सरकारी अफसरों तक से लड़ने के मूड में ही नहीं, बल्कि सीधे-सीधे मारपीट करने पर उतारू है। वो सुधरने के लिए तैयार नहीं है। उसे बस शोर मचाना है, हल्ला करना है। यदि कोई सरकार ही गुंडई पर उतारू हो जाये तो उससे भी फिर वैसे ही निपटना होगा जैसे कि किसी गुंडे-मवाली से निपटा जाता है?

राष्ट्रपति शासन लगे

अब सिर्फ एक ही विकल्प है कि दिल्ली सरकार को बर्खास्त कर यहां राष्ट्रपति शासन लागू हो। जब स्थितियां अनुकूल हो जायें, तब नयी विधानसभा के लिए चुनाव करवाये जायें। वैसे तो अभी इस सरकार का दो वर्ष का कार्यकाल शेष है। इस दौरान अब और कुछ होने वाला भी नहीं। हां, दावें और वादे खूब होंगे।अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को अब एफएम रेडियो पर बड़े-बड़े वादे और प्रवचन (पर-वचन) देते हुए सुना जा सकता है, क्योंकि स्व-कार्य तो स्वीकार्य ही नहीं है किसी भी सही दिमाग के व्यक्ति को। इन दोनों को लगता है कि एफएम रेडियो पर जनता से मुखातिब होना ही जनता की सेवा है। इसी से वे फिर चुनाव जीत जायेंगे।

केजरीवाल के खाने और दिखाने के दांत अलग-अलग हैं। केजरीवाल सरकार के कई मंत्रियों पर भ्रष्टाचार एवं अनियमितताओं के आरोप लगते आये हैं। इसी का नतीजा है कि सरकार बनने के बाद से लेकर अब तक कई मंत्रियों को हटाना भी पड़ा। हालांकि, केजरीवाल ने भ्रष्टाचारियों को बचाने में कोई कसर नहीं उठा रखी। ज्यादातर विधायकों पर गुंडागर्दी, बलात्कार, अपहरण और रंगदारी वसूलने जैसे गंभीर आरोप हैं। केजरीवाल ने अपने मंत्रियों के भ्रष्टाचार के मुद्दों को नकारने के भरसक प्रयास किये, लेकिन मंत्री सत्येंद्र जैन की हवाला मामले में संलिप्तता के आरोप तथा उसके नजदीकी रिश्तेदार डॉ.निकुंज अग्रवाल को सरकारी नियुक्ति में पैसे वसूलने के मामले इतने गंभीर हैं कि उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। केजरीवाल का भ्रष्टाचार के विरूद्ध संघर्ष तो दिसंबर 2013 के मध्य में ही समाप्त हो गया था। दिल्ली की जनता अब भ्रष्टाचार के मामले में अरविंद केजरीवाल के दोहरे मापदंड को अच्छी तरह समझने लग गई है। वह यह भी समझती है कि केजरीवाल पहले अपने साथियों की गलतियों का बचाव करते हैं, लेकिन जब वह पूरी तरह फंस जाते हैं तो सफाई देने से कन्नी काट जाते हैं।

कतई लोकतांत्रिक नहीं

अंशु प्रकाश जैसे सज्जन और कर्मठ अफसर की सरेआम पिटाई की घटना के बाद अब किसी को यह संदेह नहीं होना चाहिए कि केजरीवाल एंड कंपनी किसी के साथ मिलकर लोकतांत्रिक ढंग से काम कर ही नहीं सकते। उनकी लोकतंत्र में आस्था है ही नहीं। वे नवोदित तानाशाह हैं। न उप राज्यपाल के साथ, ना केन्द्र सरकार के साथ और न ही नौकरशाहों के साथ। किसी के साथ इनका तालमेल बैठ ही नहीं सकता। क्योंकि इनकी नजरों में सब के सब खराब हैं, बस सिर्फ ये ही दूध के धुले हैं। ये नजीब जंग के साथ काम नहीं कर सके। अब अनिल बैजल से भी रोज लड़ते हैं। अभी मुख्य सचिव अंशु प्रकाश को मारा, इससे पहले दिल्ली की महिला कार्यकारी मुख्य सचिव शकुंतला गैमलिन को सरेआम भ्रष्ट बता डाला। गैमलिन पूर्वोत्तर राज्य से आती हैं। बेहद जुझारू अफसर हैं। केजरीवाल खुद तो आईएएस नहीं बन सके, इस जनम में बन भी नहीं सकते। अगले जनम में ही कोशिश करनी होगी। लेकिन, अंशु प्रकाश जी यदि चुनाव लड़ जायें, तो वे जरूर मुख्यमंत्री बन सकते हैं। केजरीवाल जी भी आईएएस बनने की तमन्ना लेकर ही परीक्षा में बैठे थे, लेकिन न तो आईएएस बने न आईएफएस न ही आईपीएस चुने गये। चुने भी गए तो आयकर अधिकारी। आयकर अधिकारी के बारे में जितना कम कहा जाय उतना की ठीक है। कहीं यह केजरीवाल की हीनभावना तो नहीं, कि वे लगातार ईमानदार आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को बेवजह बेइज्जत करते चले आ रहे है?

केजरीवाल ने अपने आचरण से भी व्यवहार से बहुत लोगों को निराश किया है। वे पहली बार जब दिल्ली में सत्तासीन हुए तो एक उम्मीद बंधी थी कि वैकल्पिक राजनीति का मार्ग प्रशस्त करेंगे। परंतु वो तो अन्ना के आन्दोलन से निकले हुए रंगे सियारों की टोली के सरगना निकले। हालांकि जब रंगा सियार पकड़ा जाता है तो उसका जनता क्या उपचार करती है यह भी जगजाहिर है। लगता है कि अब वही अब केजरीवाल जी के साथ भी होने वाला है। उन्होंने वैकल्पिक राजनीति की बात करने वाले लोगों को एक उम्मीद जरूर दिखाई थी। पर वे तो नकारात्मक राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा बन गये। केजरीवाल ने सेना के सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल किये। वे भूल गए कि देश शूरवीरों को लेकर सियासत नहीं करता। बटाला कांड को फेक एनकाउंटर कहा। करप्शन को चोट पहुंचाने के लिए उठाये गये नोटबंदी के कदम तक का पूरजोर विरोध किया। अब उनके सारे विकल्प खत्म हो चुके हैं। पाप का घड़ा जब भर जाता है, तो उसे फूटने में देर नहीं लगती।

(लेखक राज्यसभा सदस्य और बहुभाषी न्यूज एजेंसी हिन्दुस्थान समाचार के अध्यक्ष हैं)

Updated : 24 Feb 2018 12:00 AM GMT
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