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भाजपा को 2019 में 2004 का खतरा

भाजपा को 2019 में 2004 का खतरा
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गुजरात विधानसभा के बाद राजस्थान चुनाव परिणाम यह संकेत देता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए 2014 और बाद में होने वाले राज्यों के नतीजों के समान, अनुकूलता की स्थिति नहीं है। भाजपा जहां अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार कर रही है वहीं जहां वर्षों से उसका शासन है, वही उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसी के साथ यह भी संकेत मिल रहे है कि लोकसभा चुनाव के पूर्व केंद्रीय सरकार ने जो बजट पेश किया है, उससे जनता उत्साहित नहीं हुई है। प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की विश्वसनीयता में कोई कमी नहीं आई है, यह भी सही है कि 2014 में सत्ता संभालने के बाद उन्होंने जिन नीतियों पर चलना शुरू किया है उसके परिणाम 2024 तक पाने की अपेक्षा व्यक्त की थी और यह भी सही है कि भ्रष्टाचारमुक्त प्रशासन की दिशा में बढ़ने के संकल्प पर लोगों का भरोसा कायम है, लेकिन जिस प्रकार पक्षपातपूर्ण और भ्रष्टाचारयुक्त शासन से ऊबकर भाजपा को जनता ने सत्ता में बैठाया था, सुधार की प्रारंभिक दुरूहता के कारण होने वाली असुविधाओं ने उसे बेचैन कर दिया है। नोटबंदी जैसे कठोर सुधारवादी कदम उठाये जाने की परेशानी को जिस तरह सहज भाव से देश ने, विपक्ष के उत्तेजक अभियान के बावजूद स्वीकार किया, वह इस बात का सबूत है उसे भाजपा की नीति और नीयत दोनों पर अटूट विश्वास है। लेकिन सेवा और वस्तुकर (जीएसटी) लगा देने पर जिस प्रकार उसके कोर मतदाता व्यवसायी वर्ग में असंतोष प्रगट हुआ, जिसे शांत करने के लिए जीएसटी में अनेक संशोधन भी किए गए, उसने भाजपा का माहौल खराब किया है। इसी के साथ जातीय आकांक्षाओं के अतिवादी आंदोलनों में जिसकी इच्छाओं का समाधान असंभव है, लेकिन सत्ताधारियों को उसके रोष का शिकार होना ही पड़ता है, भाजपा के प्रति अनुकूलता के बावजूद मतदान के लिए अनुकूलता घटी है।

भारतीय जनता पार्टी की एक के बाद एक राज्यों में विजय उसकी विश्वसनीयता में जनास्था का सबूत है लेकिन जिन राज्यों के साथ-साथ केंद्र में भी उसकी सत्ता है, उसमें निराशा के भाव भी बढ़े हैं। यह निराशा इसलिए नहीं है कि उसके शासनकाल में जनता कोई खोट देख रही है, बल्कि इसलिए कि इसे जिस गति से वादों के क्रियान्वयन की अपेक्षा थी, वह पूरी नहीं हो रही है। 2014 के चुनाव के समय जो वातावरण बना था, जनता यह अपेक्षा करती थी कि सत्ता संभालते ही सब कुछ ठीक हो जायेगा। कोई भी परिवर्तन इतनी जल्दी संभव नहीं है। उसकी एक प्रक्रिया होती है, जिसको अपनाये बिना परिवर्तन संभव नहीं है, लेकिन क्या उस दिशा में बढ़ा जा रहा है? इसका उत्तर यद्यपि सक्षम ढंग से प्रधानमंत्री ने यह कहकर कई बार दिया है कि वे चुनावी लाभ की नीयत से कोई नीति जो तात्कालिक संतोष के लिए हो, को उनकी सरकार नहीं अपनायेगी। वह सबका साथ और सबका विकास के संकल्प के अनुसार ही चलेगी। लेकिन सबका साथ लेने का माहौल कतिपय कारणों से बिगड़ता दिखाई पडने के कारण तद्नुरूप नीति योजना के और उन पर अमल करने के विश्वास को प्रभाव दिखाने में सफल नहीं हो सका।

भाजपा के सत्ता में आने के पूर्व किसान आत्महत्या कर रहे थे बाद में भी जारी है, बेरोजगारी में कमी नहीं आई है। रोजगार के रूप में नौकरी की अवधारणा को विराम नहीं लगा है। मुद्रा बैंक से रोजगार के लिए बिना ब्याज के ़ऋण देने का लाभ उठाने की मानसिकता विकसित होने में समय लगेगा, क्योंकि वर्षों से आजादी के बाद से स्वरोजगार तिरोहित होते गए। महत्वाकांक्षी घरेलू उद्योग के आते प्राचीन समय से आत्मनिर्भर जिस व्यवस्था की पैरोकारी करते रहे, उस स्वरोजगार के व्यवस्था को उनके ही अनुयायियों ने नष्ट ही नहीं किया, बल्कि नौकरी की प्राथमिकता के लिए अनुकूल मानसिकता को बढ़ावा भी दिया। इसलिए जब मोदी सरकार ने कुछ करोड़ रोजगार सृजित करने की बात की तो उसे नौकरी के अवसर के रूप में समझा गया। उनकी स्वरोजगार की योजना अभी तक अपेक्षित प्रगति नहीं कर सकी है। इसलिए विश्वसनीयता के बावजूद उदासीनता का प्रभाव दिखाई पड़ने लगा है। भाजपा के सबसे ज्यादा समर्थक मध्यमवर्गीय जिनमें कर्मचारी, छोटे व्यापारी आदि सम्मिलित हैं। सरकार के विकास सम्बन्धी जो भी नीतियां बनाई है उससे इस वर्ग की हानि तो नहीं हुई लेकिन परेशानी अवश्य उठानी पड़ी। लाभ या तो सम्पन्न वर्ग-बड़े उद्योग घरानों का हुआ या फिर गरीब तबके का। विभिन्न राज्य में उद्योगों को बढ़ाने के लिए आयोजित होने वाली समिट मेक इन इंडिया जैसे आयोजन विदेशी इंजीनियर्स के लिए बढ़ती सुविधाओं से ऐसा माहौल बनाने वालों को मदद मिली जब यह आरोप बराबर रहा है कि भाजपा पूंजीपतियों की हितैषी है। किसानों के हित के लिए बनाई गई योजनाओं के क्रियान्वयन राज्यों द्वारा किये जाने में प्रशासनिक व्यवधान का बने रहना और आमदनी करने के प्रयास की तात्कालिक प्रभाव की अपेक्षा ने भी निराशा पैदा किया है। यद्यपि राजकीय कोष का घाटा कम हुआ है और योजनाओं की धनराशि लूटने वाले बिचौलिये अब पनपने नहीं पा रहे हंै लेकिन उनके क्रियान्वयन में भाजपा कार्यकर्ताओं की अभिरूचि के अभाव व नौकरशाही ने पूर्ववत आचरण पर ही अमल करते रहने की आदत में कोई बदलाव नहीं किया है। आर्थिक मुद्दों को लागू कराने के बजाय भावनात्मक मुद्दों पर अधिक प्रबलता से उत्साह दिखाने के कारण कुछ अवांछनीय घटनाओं ने चापलूसी से प्रभावित लोगों की मानसिकता को भी बिगाड़ा है। अवकाश प्राप्त नौकरशाही न्यायाधीशों की प्रतिक्रियाओं को जिस ढंग से प्रचार मिला उसने क्रियाशील नौकरशाही और न्यायाधीशों की मानसिकता को भी प्रभावित किया है। और सबसे अधिक प्रभाव इस बात का पड़ा है कि जहां भाजपा शून्य थी वहां भी सौ प्रतिशत समर्थन को उसने अपने प्रति आस्था मान लिया जो वास्तव में पूर्ववर्ती व्यवस्था के प्रति असंतोष का प्रगटीकरण था।

सत्ता संभालने वाले व्यक्तियों के व्यवहार उपलब्धता में संगठन में कार्य कराते समय की अपेक्षा परिवर्तन आना स्वाभाविक है। नौकरशाही से उनका घिरे रहना, उन्हीं से सम्पत्ति प्राप्त करना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया को वह जहां अपनी उपेक्षा के रूप में लेता है, वहीं सत्ता में बैठे लोगों के लिए कार्यकर्ताओं की प्राथमिकता गौड़ हो जाती है। सत्ताधारियों में अपनी प्रशंसा सुनने की अपने कार्यवाही सुनने की आकांक्षा बलवती होती है। जिसे हम ठकुर सुहाती कहते हैं। भाजपा कार्यकर्ता जिस संस्कार से युक्त हैं, उससे इसकी अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। वह पदाधारियों की अनुकूलता पाने के लिए इस प्रकार के आचरण से दूर रहता है। इस रिक्तता को भरने के लिए परंपरागत अवसरवादी सदैव मौजूद रहते हैं। उनकी प्रशस्ति याचन का प्रभाव भी होता है। मंत्री या अन्य पदधारक उनके गिरोह से ही घिरा रहना पसंद करने लगता है। भाजपा में भी सत्ता में आने के बाद ठाकुर सुहाती बढ़ी है ऐसा आरोप लगाने वालों ने तो यहां तक भी कह डाला है कि भाजपा भी सत्ता में आने के बाद कांग्रेस हो गई है। ये आरोप कितने सही है या काल्पनिक मैं इसकी तह में नहीं जाना चाहता। लेकिन जिनका दायित्व है उनके लिए इसकी तह में जाने की आवश्यकता है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने जब 2004 में समय से पूर्व लोकसभा भंगकर चुनाव में जाने का फैसला किया था, उसका शाइनिंग इंडिया का नारा सार्थक लग रहा था, चुनाव परिणाम क्यों विपरीत हुआ। मोदी सरकार या फीलगुड का संदेश निरर्थक नहीं है, लेकिन 2019 का चुनाव परिणाम 2004 के समान ही न हो जाय, उसका विजन आगे बढ़ता रहे, इसके लिए यह आवश्यक है कि गुजरात विधानसभा और राजस्थान के लोकसभा के चुनाव परिणाम की उपेक्षा न करें उससे सबक लें। अभी मोदी के नेतृत्व के प्रति अनुकूलता की अनुभूति से वह अभिभूत है। इसलिए निष्क्रिय है। धरातलीय से कागज कार्यवाही अधिक महत्वपूर्ण हो गई है जैसे आनलाइन सदस्यता को पार्टी की शक्ति समझा गया था। वह केंद्र की सत्ता में आने का आफ्टर इफेक्ट था। आफ्टर इफेक्ट स्थायी नहीं होता इसका संज्ञान यदि भाजपा में आया तो 2019 पर प्रश्नचिन्ह बनकर रहेगा। एक और तथ्य है क्योंकि 2009 के पूर्व गठबंधन के साथी साथ छोड़ रहे थे और क्यों 2019 के पूर्व आज साथ छोड़ने की धमकी दे रहे हैं, इसका भी संचयन आवश्यक है। सत्ता के विरोध के प्रति अनुकूलता की मानसिकता चलन में है यह जितना 2014 में स्पष्ट रूप से प्रगट हुआ है वह आगे नहीं हो सकता इसकी कोई गारंटी नहीं दे सकता।

- राजनाथ सिंह सूर्य

Updated : 8 Feb 2018 12:00 AM GMT
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