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राजनीति की कड़ाही में पकौड़े

राजनीति की कड़ाही में पकौड़े
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राजनीति की प्रयोगशाला में नए-नए शब्दों का घालमेल कर उन्हें मुद्दे के रूप में परोसा जाता है। 2014 में कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने चाय बेचने वाले की बात कहकर नरेन्द्र मोदी का उपहास किया था। लेकिन चाय का मुद्दा भाजपा का प्रभावी मुद्दा बन गया। चाय का स्वाद हर राजनेता के भाषण की चुस्की बन गई। राजनीतिक पंडित अपनी समीक्षा में बताते हैं कि चाय का मुद्दा भाजपा के लिए हितकारी रहा। इसी प्रकार अब कांग्रेस के नेता चिदंबरम आदि ने रोजगार के मुद्दे पर कह दिया कि क्या रोजगार के लिए युवक पकौड़े बेचेगा? अब पकौड़े को लेकर राजनीति की कड़ाही में पकौड़े तले जा रहे हैं। समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में कई स्थानों पर पकौड़े तलकर भाजपा का विरोध किया जा रहा है। कही ऐसा न हो कि कांग्रेस की थाली के पकौड़े चाय के साथ भाजपा की प्लेट में चले जाएं। राजनीतिक लफ्फेबाजी में गरीबी का मखौल उड़ाया जाना कहां तक उचित है? किस व्यवसाय में सामाजिक प्रतिष्ठा मिलती है? धंधे को प्रतिष्ठा का सवाल बनाने से ही ऊंच-नीच की स्थिति बनी? क्या हमारा राजनीतिक नेतृत्व चाय-पकौड़े की जुमलेबाजी में जनसमस्या से जुड़े मुद्दे से ध्यान हटाना चाहता है।

चाय-पकौड़े से कई लोगों का रोजगार जुड़ा हुआ है। कई सड़क पर ठेले या गुमटी में भी चाय पकौड़े बनते हैं और बड़ी रेस्तरां और सितारा होटल में भी बनते हैं, अंतर केवल इतना है कि ठेले-गुमटी के बनने वाले पकौड़े चाय का नाश्ता दस-पंद्रह रुपए में हो जाता है। रेस्तरां या बड़ी होटल में इसी चाय-पकौड़े के नाश्ते का बिल दो-तीन सौ रुपए तक आता है। सड़क की दुकान पर गरीब नाश्ता करता है और होटलों में अमीर की टेबल पर भी यही नाश्ता होता है। फर्क है ठेले-गुमटी और होटल का? इस मनोविज्ञान से चाय-पकौड़े की चर्चा हो तो थोड़ी बहुत सार्थक हो सकती है। सवाल है आम लोगों का? इस अंतर को भी समझना होगा कि गरीब चाय-पकौड़े पेट भरने के लिए खाता है और अमीर केवल स्वाद के लिए। खाने की वस्तु समान है, लेकिन मुँह के अंदर ले जाने की दृष्टि में अंतर है। यही अंतर है राजनीतिक दृष्टि में। चाय बेचने को चाहे 2014 के पहले घटिया स्तर का धंधा या गरीबों का धंधा माना जाता हो, लेकिन नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद चाय सड़क से लेकर संसद तक प्रतिष्ठा का सवाल बन गई। वस्तु भी व्यक्तित्व के साथ सम्मान प्राप्त करती है। जिस तरह नरेन्द्र मोदी के कारण चाय को प्रतिष्ठा मिली, कहीं ऐसा न हो कि चाय के साथ पकौड़े भी राजनीति के एक ही मुँह का स्वाद बन जाए।


विजय कुशवाहा, झांसी

Updated : 9 Feb 2018 12:00 AM GMT
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