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खतरनाक है पशुओं पर उत्पाद का प्रयोग

कई सारी कंपनियां पशुओं पर परीक्षण करती हैं। यहां तक कि जिन्हें इसकी आवश्यकता भी नहीं होती। उदाहरण के लिए परफ्यूम कंपनियों ने अब परफ्यूम बनाने के लिए आवश्यक होने वाले सभी अवयवों को पृथक कर लिया है। उन्हें तो अब इसे मिलाना मात्र होता है। परंतु वे खरगोश की आंखों में परफ्यूम छिड़कने, उनकी खाल को काट कर इसे रगड़ने तथा अन्य भयावह परीक्षणों को जारी रखे हुए हंै। ऐसा अरामीज, एलबेलेनसिएगा, बुलगारी, कचेरल, डोन्ना करन, डनहिल फ्रेग्रेन्सेस, एलीजाबेथ आर्डन, गुच्ची फ्रेग्रेन्सेस, हुगो बॉस, जो मैलोन, लैकोस्ट फ्रेग्रेन्सेस, मार्क जैकब्स फ्रेग्रेन्सेस, माइकल कोर्स, मिसोनी, रॉल्फ लॉरेन फ्रेग्रेन्सेस, टॉमी हिलफाइजर और केन्जों जैसी परफ्यूम बनाने वाली कंपनियों द्वारा किया गया था।
दंतमंजन कंपनियां पशुओं को यह देखने के लिए अपने उत्पाद खिलाती है कि किसी पशु की मृत्यु कितने दंतमंजन को खाने के पश्चात होती है। क्या इससे कुछ सिद्ध होता है? क्या किसी मानव ने कभी गू कंपनी के दंतमंजन की पांच ट्यूबों का सेवन किया है? या क्या एक का भी किया है? परंतु एक्वाफ्रेश, क्लोज-अप, कोलगेट, क्रेस्ट, लिस्टरीन, मेंटाडेंट, पर्ल ड्राप्स, सेन्सोडाइन, सिग्नल, ओल्ड स्पाइस, राइट गार्ड परीक्षण को जारी रखे हुए है।
पशु परीक्षण और प्रयोग उद्योग हर कहीं पर हैं। यह रहस्यात्मक, क्रूर तथा लाभप्रद है। आप में से अधिकांश यह नहीं जानते कि आपके द्वारा खरीदे जाने वाले उत्पादों में काफी पीड़ा शामिल होती है। परंतु अनुसंधान, उत्पाद परीक्षण तथा शिक्षा में पशुओं का अनावश्यक शोषण क्यों किया जाता है? भारत स्कूल में काटे जाने के लिए एक वर्ष में 1 करोड़ से अधिक मेढक खरीदा करता था। जब सरकार ने इसे प्रतिबंधित किया तो शिक्षा की गुणवत्ता पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। केरल के शिक्षकों ने इस पर बल दिया कि किसी न किसी को तो मारना ही होगा इसलिए कई वर्षों तक मेंढक की आपूर्ति करने वाले कॉक्रोच के आपूर्तिकार बन गए जब तक कि एक मुख्यमंत्री ने इसे भी रोक नहीं दिया। पशुविज्ञान के शिक्षकों ने 3 वर्ष के पाठ्यक्रम के दौरान 1000 से अधिक पशुओं की हत्या किए जाने पर बल दिया। जब यह बंद हुआ, तो शिक्षण में सुधार हुआ, परंतु हर बार कोई न कोई पशुविज्ञान शिक्षक इसे पुन: प्रारंभ किए जाने पर बल देता है। पशुओं के आपूर्तिकारों से पूछिए कि गठजोड़ कहां है और वे शिक्षकों की ओर इशारा करेंगे। खरगोशों का उपयोग इंजेक्शन बनाने के परीक्षण में किया जाता था। भले ही यह मशीन से बनाए जाते हों। जब सरकार ने इसे प्रतिबंधित किया तो भी समान इंजेक्शनों को बनाए रखा जाना जारी रहा। सरकारी कीटनाशक काउंसिल ने वे परीक्षण बंद कर दिए है जिन्हें पशुओं के मरने तक किया जाता था इसका कीटनाशकों पर कोई प्रभाव नहीं होगा। हजारों साबुन तथा परफ्यूम पशुओं पर परीक्षण नहीं करते और वे भी उतने ही अच्छे होते हैं। यह पाया गया है कि पशुओं पर परीक्षण की जाने वाली 90 प्रतिशत दवाएं विफल हो जाती हैं। तो यह सब क्यों चल रहा है?

यह एक काफी फैला हुआ व्यापार माफिया है जो पशुओं पर प्रयोग किए जाने पर बल देता है। इसे विज्ञान के आवरण में छिपाया जाता है। यह एक अंतर्राष्ट्रीय, सरकार द्वारा स्वीकृत और वित्तपोषित, कई बिलियन डॉलर का व्यापार है। एक उदाहरण देखिए मेरे संगठन द्वारा 10 वर्ष पहले मारे गए छापे में आगरा में एक ऐसा डीलर पाया गया जिसके घर में नमूनों के तौर पर 20,000 से अधिक मृत पशु रखे हुए थे। वह एक सेवानिवृत्त वन अधिकारी था। उनमें से अधिकांश वन्यजीव संरक्षित प्रजातियां थी। इसमें मगरमच्छ, सांप, चमगादड, प्रत्येक प्रकार का स्तनधारी शामिल था। पुलिस ने उसके कम्प्यूटर के माध्यम से पाया कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय में कुछ प्रयोगशालाओं को भी इन्हें बेच रहा था। जब वन्यजीव विभाग ने यह नियम पारित किया कि कोई स्कूल, कॉलेज नमूने नहीं रखेगा, तो मंत्रियों के समक्ष प्रतिनिधिमंडल ले जाने वाले लोगों (जो शिक्षक है) में इस सूची में शामिल अवैध खरीददार ही थे।

जेएनयू में एक अनुसंधानकर्ता ने 10 वर्षों तक प्रति दिन एक चूहे की हत्या यह सिद्ध करने के लिए की थी कि चूहे सोते समय, नींद में होते है। उनका वेतन काफी अधिक था और वह विश्वविद्यालय में एक वैज्ञानिक के तौर पर किराया मुक्त आवास में रह रहा था। उनके जैसे हजारों मौजूद हैं।
इससे कौन लाभान्वित होता है? पशु प्रयोग करने वाले अनुसंधानकर्ताओं तथा तकनीशियनों के वेतन वित्तीय प्रोत्साहन मुहैया करवाते है। विश्वविद्यालय और अन्य शैक्षणिक संस्थान सरकार से पशु प्रयोगों हेतु मिलने वाले अनुदान के ओवरहैड के प्रतिशत से लाभान्वित होते है। बिना सोचे कार्य करने वाले राजनीतिज्ञ और चालाक नौकरशाह सुरक्षा और प्रभावोत्पादकता के आकलन हेतु औषधियों, रसायनों, दवाओं के परीक्षण को बाध्यकारी करने वाले कानूनों की अनुमति देते हैं। रक्षा मंत्रालय पशुओं पर बंदूकों तथा गैसों के परीक्षण की अनुमति देता है, कार निर्माता पशुओं पर डीजल परीक्षण करने, और कृषि मंत्रालय तथा उपभोक्ता उत्पाद सुरक्षा परिषदें उत्पादों हेतु इसे अनुमेय करते हैं तथा एफएसएसएआई भोजनों हेतु इसकी आज्ञा देता है। हर कोई लाभान्वित होता है सिवाय उन करोड़ों पशुओं के जो पीड़ा सहते हैं तथा अनावश्यक रूप से अपनी जान गंवाते हैं। और कौन लाभान्वित होते है? धर्मार्थ का दिखावा करने वाले एनजीओ जो लगभग प्रत्येक मानव रोग का उपचार ढूंढने की आशा में अच्छे खासे लोगों से बिलियनों डॉलर कमाते हैं यहां तक कि तब भी जब मानव रोगों हेतु पशु मॉडल इसका पूर्वानुमान लगाने में विफल रहते हैं कि दशकों के वित्तपोषण के पश्चात लोगों के लिए क्या सुरक्षित या प्रभावी है। पशु प्रजननकर्ता चूहों से लेकर प्राइमेट तक प्रजनन एवं जेनेटिक इंजीनियरिंग से बनाए गए पशुओं से अच्छा लाभ कमाते हैं। एक पशु आपूर्ति कंपनी से उद्धृत हाल के मूल्यों में प्रत्येक सफेद खरगोश का मूल्य 352 डालर, चीन के बीगल्स का 1049 डालर तथा कुछ प्राइमेट की लागत 8000 डॉलर जितनी अधिक था।

पशु मॉडल अनुसंधान से संबंधित भोजन, पिंजरों तथा उपकरण के आपूर्तिकारों का एक लाभकारी व्यापार है। अनुसंधान पशुओं हेतु ध्यान देने के लिए नियोजित पशुचिकित्सकों को पीड़ा की अनदेखी करने तथा अपने अनुमोदन की मोहर लगाने हेतु काफी अधिक राशि दी जाती है। दवा कंपनियां मानवों पर वास्तविक अनुसंधान किए जाने से पूर्व पशुओं पर अध्ययन करके पशु अनुसंधान मशीनों को बढ़ावा देती हैं। यदि मानव को पीड़ा पहुंचती है या उसकी मृत्यु होती है, जैसा कि अक्सर होता है, कंपनी यह कहते हुए अपना कानूनी रूप से बचाव करती है कि परीक्षण ने पशुओं पर तो ठीक-ठाक कार्य किया है। ये बड़े कारपोरेट पशु अध्ययनों का उपयोग एक कानूनी सुरक्षा ढाल के रूप में अदालत को यह बताने के लिए करते है कि उन्होंने कानून की अपेक्षा अनुसार ही कार्य किया है - पशु पर दवा के सुरक्षित होने को सिद्ध करते है - और वे अत: किसी मानव को क्षति पहुंचाने वाली दवा के लिए उत्तरदायी नहीं है।

यहां तक कि मीडिया भी पशु परीक्षणों के परिणामों का उपयोग करके चिकित्सा चमत्कारों की घोषणा करते हुए पशु अनुसंधान को न्यायोचित ठहराने के लिए वैज्ञानिक समुदाय के मध्य की प्रकाशित करो या भुगतो वाली मानसिकता से लाभान्वित होता है जो उनकी और अधिक जर्नलों, समाचार पत्रों की बिक्री करने तथा टीवी रेटिंग्स को बढ़ाने में सहायता करते हैं।
इन प्रयोगों का विरोध करने वाला कोई भी व्यक्ति इन व्यापारों के विरोध के आगे घुटने टेक देगा। मैंने कई बार इसका सामना किया है। वर्तमान में मैं कैप्सूलों को शाकाहारी बनवाने का प्रयास कर रही हूं। समूचा जिलाटिन उद्योग इसका विरोध कर रहा है। इसलिए तथाकथित स्वतंत्र पत्रकारों से नियमित रूप से मीडिया में ऐसे लेख आते है कि शाकाहारी कैप्सूल खराब और महंगे है। इसे नियंत्रित करने वाली समिति उद्योग के लोगों से भरी हुई है।

(लेखिका केन्द्रीय मंत्री व पर्यावरण विद् हैं)

Updated : 14 March 2018 12:00 AM GMT
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