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राजनीतिक क्षितिज से ओझल वामपंथ

राजनीतिक क्षितिज से ओझल वामपंथ
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सुशील कुमार सिंह


जब शक्ति को वैधानिकता मिलती है तो यह सत्ता में बदल जाती है। यही एक बड़ी वजह रही है कि राजनीतिक दल शक्ति प्रदर्शन के मामले में न पीछे हटते हैं और न ही किसी अन्य के डटे रहने को बर्दाश्त करते हैं। दरअसल राजनीति के अपने विचार केन्द्र होते हैं जिसका अभिप्राय विचारधारा से है और इन्हीं के चलते राजनीतिक संगठनों का अस्तित्व कायम रहता है। भारत में कांग्रेस, भाजपा सहित आधा दर्जन राष्ट्रीय दल हैं जबकि अनेकों राज्य स्तरीय और सैकड़ों की संख्या में गैर मान्यता प्राप्त दल उपलब्ध हैं जो किसी-न-किसी विचारधारा के पक्षधर होने की बात करते हैं। भारतीय राजनीति में वैचारिक संक्रमण भी खूब आते रहे हैं। राजनीतिक दलों के इतिहास को देखा जाय तो कई दल स्वतंत्रता से पूर्व के हैं तो कई बाद के। इन्हीं में वामपंथ भी शामिल हैं जो स्वतंत्रता आंदोलन के उन दिनों में कमोबेश कांग्रेस के समकालीन था। इतिहास में इस बात का भी लक्षण उपलब्ध है कि वामपंथ और कांग्रेस उस काल में भी एक-दूसरे के विरोध में थे। यह समय का फेर ही है कि वामपंथ मत और विचार की अस्वीकार्यता के चलते आज भारत की राजनीति में कहीं ओझल सा हो गया है। पश्चिम बंगाल से समाप्त हो चुका वामपंथ अब त्रिपुरा भी खो चुका है। पूरे भारतीय मानचित्र में केवल केरल में इनकी उपस्थिति देखी जा सकती है। रोचक यह भी है कि वामपंथ को सियासी क्षितिज से ओझल करने में पहले कांग्रेस और अब भाजपा को देखा जा सकता है। इतना ही नहीं मौजूदा भाजपा के प्रवाहशील राजनीति में तो कांग्रेस भी तिनका-तिनका हो गयी है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 29 राज्यों में मात्र 4 में ही कांग्रेस सिमट कर रह गयी जबकि भाजपा 21 राज्यों के साथ परचम लहरा रही है।

त्रिपुरा में 25 बरस पुरानी वामपंथ सरकार को भाजपा ने जिस तर्ज पर ध्वस्त किया उससे भी साफ है कि भाजपा केवल उत्तर भारत की पार्टी नहीं है बल्कि पूर्वोत्तर की भी है। हालांकि असम पहले ही भाजपा जीत चुकी है। नागालैण्ड में बड़ी जीत और मेघालय में मात्र दो सीट जीतने के बावजूद गठबंधन की सरकार का निरूपण करने में मिली सफलता सियासी जोड़-तोड़ में भी इसे अव्वल बनाये हुए है जबकि यहां 21 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी। गौरतलब है इसके पहले मणिपुर और गोवा के चुनावी नतीजों में सबसे अधिक स्थान पाने वाली कांग्रेस सरकार बनाने में असफल रही। कांग्रेस का राजनीतिक तौर पर लगातार जमींदोज होना पार्टी विशेष के लिए चिंता का सबब होना लाजिमी है, साथ ही वामपंथ का देश की राजनीति में मिटने की ओर होना वाकई में नये तरीके के विमर्श को जन्म देने के बराबर है। वामपंथ की भारतीय स्थिति पर सोच, विचार और जन उन्मुख अवधारणा क्या है इसे खोजना वाकई में मुश्किल काम है। इनकी अपनी एक वैश्विक स्थिति रही है परन्तु आम जनमानस में इनकी स्वीकार्यता लगभग खत्म हो चुकी है। भारत के परिप्रेक्ष्य में वामपंथ एक विरोध की विचारधारा मानी जाती थी और इसकी लोकप्रियता में इन दिनों कहीं अधिक गिरावट देखी जा सकती है। एक दशक पहले वर्ष 2004 के 14वीं लोकसभा के चुनाव में दोनों वामदल में सीपीआई (एम) और सीपीआई की लोकसभा में सीटों की संख्या क्रमश: 43 और 10 थी जबकि कांग्रेस 145 और भाजपा 138 स्थान पर थी। ऐसे में वामपंथ ने कांग्रेस को बाहर से समर्थन दिया। इतिहास में यह पहली घटना है कि कांग्रेस को कोसने वाले वामदल ने कांग्रेस को ही समर्थन दे दिया। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उन दिनों में वामपंथियों ने गांधी को खलनायक और जिन्ना को नायक की उपाधि दी थी। यह कथन वामपंथ के कांग्रेसी तल्खी का भी बेहतर नमूना है। 1962 के चीनी आक्रमण को लेकर भी वामदल एकमत नहीं थे। ये पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विरोधी और कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित दल हैं जिसकी जड़ सरहद पार है। ऐसे में कांग्रेस को इनके द्वारा दिया जाने वाला समर्थन एक बेमेल समझौता था।

सवाल यह है कि क्या वामदल भारतीय मानसिकता को समझने-बूझने में विफल हुआ है? पिछले तीन चुनावों से इनकी स्थिति को परखा जाय तो 14वीं लोकसभा में जहां 53 सीटों के साथ इनकी हैसियत सरकार के समर्थन के लायक थी वहीं 15वीं लोकसभा में केवल 20 पर सिमट गयी जबकि वर्ष 2014 के 16वीं लोकसभा चुनाव में तो मात्र 10 का ही आंकड़ा रहा। यह संख्या सीपीआई (एम) और सीपीआई को जोड़कर बतायी जा रही है। साल 2016 के पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव से दशकों सत्ता पर रहने वाला वामपंथ यहां से भी बुरी तरह उखड़ गया। ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस के 211 सीट के मुकाबले सीपीआई मात्र 1 और सीपीआई (एम) 26 सीटों पर ही सिमट कर रह गयी। यहां त्रिपुरा से भी खराब स्थिति देखी जा सकती है। त्रिपुरा में माणिक सरकार 60 सीटों के मुकाबले 18 पर सिमट गयी जबकि भाजपा ने दो तिहाई बहुमत के साथ इतिहास दर्ज कर दिया और कांग्रेस न तो त्रिपुरा में और न ही नागालैण्ड में खाता खोल पायी। परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण को देखते हुए क्या यह माना जा सकता है कि वामपंथ देश से पूरी तरह खत्म होने की ओर है। जिन क्षेत्रों में इनकी स्वीकार्यता थी वहां इनकी बड़ी हार कुछ ऐसे ही संकेत कर रही है। पहली वामपंथी सरकार 60 के दशक में केरल में आयी थी और इस समय केरल तक ही सिमट कर रह गयी है।

वामपंथी विचारधारा का इस अवस्था में पहुंचने के पीछे एक कारण इनके पारंपरिक तौर-तरीके से जनता का ऊबना भी है, दूसरा यह कि भाजपा नये कलेवर की राजनीति करती दिख रही है। जनमानस को भी नई और सही राह चाहिए क्योंकि अब आस्थावादी दौर जा चुका है। एक ही विचारधारा की चाबुक से जागरूक जनमत को अपने पक्ष में नहीं किया जा सकता। शायद यही कारण है कि वामपंथ का ही नहीं कांग्रेस का तिलिस्म भी भरभरा रहा है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या जनमानस का वामपंथ पर से भरोसा उठ गया है? क्या नई विचारधारा इनकी रूढ़िवादी सोच पर भारी पड़ रही है? वास्तव में देखा जाय तो विचारधारा की भूख किसे नहीं है इसके बावजूद वामपंथी अपने अस्तित्व के लिए इसमें संघर्ष करते हुए भी तो नहीं दिख रहे हैं। मीडिया की चुनावी बहस हो, चुनाव हो, सरकार की आलोचना या उस पर दबाव ही क्यों न हो वामपंथ के पोलित ब्यूरो का संदेश और संचार दोनों नदारद हैं। ऐसे में इनमें मनोवैज्ञानिक टूटन भी देखी जा सकती है। एक कमी वामपंथियों में यह भी रही है कि इन्होंने देश के अन्दर देशीय ताकत बढ़ाने के बजाय वर्ग भेद में अधिक समय व्यतीत किया। 1962 के चीन आक्रमण के चलते वैचारिक संघर्ष पनपे। परिणामस्वरूप दो वर्ष बाद इनके दो गुट बन गये जो बाकायदा आज भी कायम है। हालांकि जिस तर्ज पर पूर्वोत्तर में मुख्यत: त्रिपुरा में भाजपा का प्रदर्शन रहा है उससे तो लगता है कि यहां विकास फैक्टर महत्वपूर्ण रहा है और वामपंथी इस मामले में भी विफल करार दिये जाते रहे हैं। ऐसे में राजनीति से वाम का ओझल होना बाखूबी समझा जा सकता है।

Updated : 7 March 2018 12:00 AM GMT
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