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सवाल लोकतंत्र एवं संविधान पर खतरे का ?

सवाल लोकतंत्र एवं संविधान पर खतरे का ?
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व्यवस्था के संचालन का दायित्व उनका रहता है जिनका सरोकार व्यवस्था से होता है, यदि दायित्व बोध के स्थान पर स्वार्थ बोध होगा तो फिर श्रेष्ठ व्यवस्था भी अधिक समय तक चल नहीं सकती। भिन्न प्रकार की राज्य व्यवस्था का अनुभव जितना भारत को है उतना शायद ही अन्य किसी देश को होगा। हमारे यहां राजधर्म के अनुसार सम्राटों ने शासन किया। राम राज्य और स्वर्ण युग की आदर्श राज्य व्यवस्था के इतिहास से हम प्रेरणा लेते हैं लेकिन जब राजधर्म का अवमूल्यन हुआ, सम्राटों ने सत्ता पर काबिज होना अधिकार माना और सत्ता सुख के लिए जनता के सरोकार की परवाह नहीं की, फिर यह राज्य व्यवस्था सामंती हो गई। हमारे यहां गणतांत्रिक व्यवस्था भी रही, समय चक्र के थपेड़ों में यह व्यवस्था भी चल नहीं सकी। कबीलाई बर्बर जातियों ने अपने स्वार्थ के लिए आक्रमण किये। हमने राजनैतिक गुलामी को करीब एक हजार वर्ष तक भुगता। आजादी मिलने के बाद राज्य व्यवस्था की दृष्टि से दो प्रकार के विचार की राज्य व्यवस्था प्रभावी थी। साम्यवाद (कम्युनिज्म) और पूंजीवाद। साम्यवादी राज्यव्यवस्था से सर्वहारा वर्ग का कल्याण होने की बजाय एक दलीय तानाशाही स्थापित हुई जिसमें स्टालिन जैसे तानाशाह पैदा हुए।

लोकतंत्र के नाम पर अमेरिका ने पूंजीवादी व्यवस्था अर्थात बाजारीकरण और सम्पत्ति के अधिकार को प्राथमिकता दी। ब्रिटेन, अमेरिका यूरोपीय देशों के लोकतंत्र को हमने अपनाया और इसी के अनुसार संवैधानिक व्यवस्था बनी। लोकतंत्र के संचालन और संरक्षण का दायित्व उन जनप्रतिनिधियों का है, जो लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था को संचालित करते हैं। जिस प्रकार की राजनैतिक परिस्थिति बनी, उससे लोकतांत्रिक मूल्यों और सरोकारों को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं। बार-बार के चुनाव से चुनाव केन्द्रित माहौल बना रहता है, जिसके लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था बनी है वह जनता दर्शक दीर्घा में बैठकर केवल राजनीति का दंगल देखती है। जनता के लिए जनता के द्वारा और जनता के लोकतंत्र का भावबोध का आभास नहीं होता। दलदल की राजनीति में मूल्यों की तलाश करना कठिन है। समाज और राजनीति अलग करके कमियों को ठीक नहीं किया जा सकता। राजनीतिक बुराइयों से समाज प्रभावित होता है और समाज की बुराइयों से राजनीति भी अछूती नहीं रह सकती। जिस तरह अनाज साफ करने की छलनी होती है, इसलिए बुराइयों की गंदगी साफ करने की प्रक्रिया सतत चलना चाहिए। हाल ही में संसद का बजट सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया। कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों ने लगातार संसद की कार्यवाही को क्यों बाधित किया। कभी बैंकों के घोटालों को लेकर हंगामा हुआ, कभी आंध्र को विशेष दर्जा की मांग को लेकर हंगामा, नारेबाजी हुई और कभी कावेरी जल विवाद को लेकर हंगामा किया गया। यदि कोई सवाल करे कि कांग्रेस के हंगामे का कारण क्या था, तो कांग्रेसी भी इसका ठीक से उत्तर नहीं दे सकते। आसंदी की व्यवस्था को नकार कर कांग्रेस के सांसदों ने अनुशासन की धज्जियां उड़ाई। सत्ता पक्ष भाजपा की ओर से बार-बार कहा गया कि हम हर सवाल पर बहस कराने को तैयार हैं। अविश्वास प्रस्ताव की चर्चा प्रारंभ हुई, इसको मीडिया ने भी हवा दी, लेकिन मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास की बात भी हवा हो गई। संसद के सत्र का एक दिन डेढ़ करोड़ रू. का होता है। जनता के पैसे के उपयोग का अधिकार है लेकिन उसकी बर्बादी को कोई उचित नहीं कह सकता। राजनीति में ऐसे सपोले भी पैदा हो गये हैं, जो जाति, परिवार और मजहबी राजनीति से समाज में बिखराव की स्थिति पैदा कर रहे है। हार्दिक, जिग्नेश, कन्हैया आदि ऐसे सपोले हैं, जिनके कारण समाज में भेदभाव का जहर फैला।

समाज को बांट कर उसमें सत्ता सुख की तलाश करने पर कांग्रेस की चुनावी रणनीति टिकी है। इसे कांग्रेस का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि १३४ वर्ष पुरानी पार्टी का नेतृत्व पहली बार ऐसे नेतृत्व के हाथों में है, जिसमें न गंभीरता है और न परिपक्वता है, अध्ययन, अनुभव का भी अभाव है। कांगे्रस का नीति पथ क्या है। राष्ट्र, संस्कृति परम्परा के बारे में क्या विचार है। इन सवालों के उत्तर शायद राहुल गांधी भी नहीं दे सकते। पहली बार कांग्रेस दिशाहीन स्थिति में है। विडंबना यह है कि संसद को बहस की बजाय हंगामे का अखाड़ा बनाने के औचित्य बताने के लिए कांग्रेस ने छोले भटूरे खा कर एक दिन का उपवास किया। जो कांग्रेस अपने उपवास या सत्याग्रह के प्रति भी ईमानदार नहीं है, उससे लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप आचरण की उम्मीद करना रेगिस्तान में पानी की तलाश करने जैसा है। कांग्रेसी इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो अपनी सत्ता के लिए कांग्रेस ने 1975 में लोकतंत्र का गला घोंटा। इंदिराजी द्वारा लगाये गये आपातकाल के अत्याचारों को देश ने भुगता। जो कांग्रेस लोकतंत्र को जेल में डालने की अपराधी है उसके मुंह से लोकतंत्र बचाने या संविधान बचाने की बात ऐसी है जिस तरह रामायण की कथा में कालनेमि राक्षस साधु का छद्म वेश धारण कर राम-राम का जाप कर रहा है। जिस कांग्रेस ने लोकतंत्र के स्तम्भ कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया को भी बेड़ियों में जकड़ दिया वह संविधान के बचाव की बात करके अपने पापों को ही उजागर कर रही है। उन्नाव के भाजपा विधायक के कथित दुराचरण की राजनीति से कांग्रेस ने अपने पैर जमाने की कोशिश की लेकिन जब कांग्रेस नेता के तंदूर कांड की चर्चा होगी, उसके नेताओं के आचरण की सच्चाई सामने आयेगी तो फिर कांग्रेस जवाब देने की स्थिति में नहीं होगी। राहुल गांधी के मुंह से संविधान पर खतरा मंडराने की बात सुनाई देती है। एससी/एसटी को खत्म करने की झूठ बोलकर दलितों के नाम से किये गये आंदोलन को हिंसक बनाने का अपराध राहुल गांधी ने किया। डेढ़ दर्जन लोग मारे गये। संघात्मक व्यवस्था को अस्थिर करने का पाप भी कांग्रेस ने किया। अनुच्छेद 356 का दुरूपयोग कर कांगे्रस ने विरोधियों की राज्य सरकारों को गिराया। कांग्रेस की कपट नीति की शिकार चरण सिंह, चंद्रशेखर, गुजराल की सरकारें हुई हैं। अपने निहित स्वार्थ के लिए कांगे्रस ने संविधान को भी अपनी राजनीति का मोहरा बनाया। राजनीतिक भ्रष्टाचार की जननी भी कांग्रेस रही है। जीप खरीदी घोटाले से लेकर बोफोर्स, टेलिफोन, स्पेक्ट्रम आदि घोटाले की कहानी यही है। मनमोहन सरकार के आखरी दो वर्ष (2012-13) को घोटालों का वर्ष कहा गया। कांग्रेस के नेता लोगों को भ्रमित कर सकते हैं लेकिन सच्चाई का सामना नहीं कर सकते। भाजपा ने भी एक दिन उपवास रखकर कांग्रेस पर संसद में हंगामा कर कार्यवाही को बाधित करने का आरोप लगाया। टीवी के माध्यम से पूरे देश ने देखा कि कांगे्रस ने हंगामा करके संसद को नहीं चलने दिया। भाजपा और कांगे्रस के आचरण का मौलिक संहार यह है कि राहुल गांधी और अन्य नेताओं ने छोले भटूरे खाकर उपवास का दिखावा किया और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने निर्धारित कार्यक्रम पूरा करने के साथ उपवास किया। श्रद्धाभाव से भक्ति और पाखंड की भक्ति में जो अंतर है, ऐसा ही अंतर भाजपा और कांग्रेस के चरित्र में दिखाई देता है। एक ओर समाज के भेदभाव को मिटाकर विकास की राजनीति है, दूसरी ओर जाति, धर्म के आधार पर समाज में बिखराव कर वोट बटोरने की राजनीति है। एक ओर देश के लिए नीतियां हैं दूसरी ओर अपने और अपने परिवार के लिए राजनीति है।

सत्ता पर काबिज होकर जनता के धन की बंदर बांट करने वालों और भारत को महानता के शिखर पर ले जाने के लिए समर्पित नेतृत्व की परख करना होगी। इस मनोविज्ञान को भी बदलना होगा कि राजनीति धंधेबाजी का माध्यम है, जैसा चला है, वैसा ही चलेगा। यदि यही स्थिति बनी रही तो लोकतंत्र और संविधान अपनी प्रासंगिकता को स्थिर नहीं रख सकते। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजनैतिक संस्कृति को बदलने का सार्थक प्रयास किया है। इसके अच्छे परिणाम भी दिखाई दे रहे है। मिसाइल में भारत सुपर पावर है। जल-थल सेना भी हर चुनौती का सामना करने में तत्पर है। पाकिस्तान आजादी के बाद से भारत के खिलाफ साजिश करता रहा। भारत के कूटनीतिक चक्रव्यूह में फंसकर आज पाकिस्तान को अपना अस्तित्व बचाना कठिन है। उभरती आर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत की पहचान बनी है। देश के लिए समर्पित नेतृत्व चाहिए या अपने और अपने परिवार के वैभव के लिए नेतृत्व चाहिए, उत्तर जनता को देना है।

(लेखक - वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक हैं)

Updated : 17 April 2018 12:00 AM GMT
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