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जज लोया केस : पब्लिक या पॉलिटीकल इंटरेस्ट लिटीगेशन

जज लोया केस : पब्लिक या पॉलिटीकल इंटरेस्ट लिटीगेशन
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- राकेश सैन, जालंधर, पंजाब
लश्कर-ए-तयबा के आतंकी सोहराबुद्दीन शेख मुठभेड़ केस की सुनवाई कर रहे केंद्रीय जांच ब्यूरो के न्यायाधीश बीएच लोया की मौत पर जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जो तल्ख टिप्पणी की है उससे पीआईएल का अर्थ पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशन के साथ-साथ पॉलिटीकल इंटरेस्ट लिटीगेशन भी किया जाने लगा है। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र, न्यायमूर्ति एएम खानविल्कर और न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने तहसीन पूनावाला व चार अन्यों की याचिकाएं खारिज करते हुए जो टिप्पणीयां की हैं व भारतीय न्यायप्रणाली के इतिहास में अभूतपूर्व हैं। जैसे न्यायालय ने कहा कि याचिकाएं राजनीतिक लाभ के लिए जनहित का मुखौटा बनाकर दायर की गईं, इनका उद्देश्य न्यायिक अधिकारियों व बांबे हाई कोर्ट के न्यायाधीशों को बदनाम करना था, वकीलों को न्यायालय की गरिमा का ध्यान रखना चाहिए, अदालत राजनीतिक और निजी वैमनस्य निकालने की जगह नहीं, निजी हित साधने और प्रचार पाने के लिए जनहित याचिकाओं का दुरुपयोग हो रहा है इत्यादि। बताना यथोचित होगा कि इन याचिकाओं में जज लोया की मौत की जांच की मांग की गई थी।
आओ जानें राजनीतिक मछली पकडऩे वाले इस कांटे, कांटे पर लगे आटे, मछलीमार और मछली के बारे में। कहानी का सूत्रधार है कुख्यात आतंकी सोहराबुद्दीन, जो मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले के झिरन्या गाँव का रहने वाला एक बदमाश था। गुजरात पुलिस ने 26 नवंबर, 2005 को उसे मुठभेड़ में मार गिराया। उसके साथ उसकी पत्नी कौसर बी को भी पुलिस ने मुठभेड़ में मार दिया। एक साल बाद 26 दिसंबर 2006 को सोहराबुद्दीन के साथी तुलसीराम प्रजापति को भी एक मुठभेड़ में गुजरात पुलिस ने मार गिराया। सोहराबुद्दीन पर हथियारों की तस्करी, गुजरात व राजस्थान के संगमरमर व्यापारियों से हफ्ता वसूली, दाऊद इब्राहिम से जुड़े होने, लश्कर व आईएसआई से संबंध के आरोप थे। निष्पक्ष लोगों की राय थी कि अगर इन आतंकियों को न मारा जाता तो गुजरात दूसरा कश्मीर बन जाता, लेकिन देश का दुर्भाग्य देखें कि तत्कालीन मनमोहन सिंह की सरकार व अभियानवादी शक्तियों द्वारा इतने खुंखार आतंकी को मारने वाले गुजरात पुलिस के डीआईजी डीजी वंजारा को अपराधियों की तरह पेश किया जाने लगा और वंजारा को कई साल जेल में बिताने पड़े। 8 अप्रैल, 2016 को भारतीय न्याय व्यवस्था ने डीजी वंजारा को एनकाउंटर केस से बरी कर दिया। अपने शासन वाले महाराष्ट्र के थाने में सोहराबुद्दीन शेख के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज होने के बावजूद कांग्रेस सीबीआई के जरिए सोहराबुद्दीन एनकाउंटर को फर्जी साबित करने में लगी रही। इसी केस में जुलाई, 2010 में गुजरात के मुख्यमंत्री व तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बेहद करीबी व तत्कालीन गृह मंत्री व वर्तमान भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को सीबीआई ने गिरफ्तार किया। यही नहीं, राजस्थान के तत्कालीन गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया से भी पूछताछ हुई थी। इसी केस की जांच कर रहे मुंबई में विशेष सीबीआई न्यायाधीश बीएच लोया की नागपुर में दिल का दौरा पडऩे से एक दिसंबर 2014 को मौत हो गई थी। वह एक सहयोगी के यहां शादी में शामिल होने नागपुर गए थे।
इस बीच जज लोया की मौत पर एक पत्रिका ने रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें उनके परिजनों ने उनकी मृत्यु की संदेहास्पद परिस्थितियों पर सवाल उठाने, साथ ही उन्हें सोहराबुद्दीन मामले में अमित शाह के पक्ष में फैसला देने के लिए 100 करोड़ रुपये की रिश्वत देने के प्रस्ताव की बात भी कहने का दावा किया गया। इस रिपोर्ट में न्यायाधीश लोया की मौत के समय, सिर पर चोट का निशान होने, कपड़ों पर खून लगा होने, पुलिस द्वारा जज लोया के फोन से डाटा डिलीट करने जैसे कई तरह के विवाद पैदा करने का प्रयास किया गया। इसी को आधार बना कर राजनीतिक दलों, अभियानवादी शक्तियों व मीडिया के एक भाग ने न्यायाधीश लोया की मौत को हत्या के रूप में प्रचारित किया ताकि अमित शाह को घेरे में लिया जा सके। लेकिन अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी जस्टिस लोया की मौत को कुदरती मौत माना है। न्यायालय ने इस मौत पर संदेह जताने वाली जनहित याचिका और याचिकाकर्ताओं की ओर से बहस करने वाले वकील प्रशांत भूषण व अन्य वकीलों के तौर तरीके पर तीखी टिप्पणियां भी की है। न्यायालय ने कहा है कि मृत्यु के समय मौजूद चार जजों के बयानों पर संदेह का कोई कारण नहीं। याचिकाकर्ताओं ने दलील दी थी कि साथी न्यायाधीश जस्टिस लोया की छाती में दर्द की शिकायत पर हृदय रोग के अस्पताल में क्यों नहीं ले गए? इस पर अदालत ने कहा है कि साथी जज अच्छे इरादे से तत्काल चिकित्सीय मदद के लिए उन्हें सबसे पास के अस्पताल ले गए।
इमरजेंसी में की गई कार्यवाही की आलोचना करना बहुत आसान है, लेकिन मानवीय व्यवहार को परखने का यह तरीका नहीं हो सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीश लोया की मौत को स्वाभाविक बताते हुए स्वतंत्र एजेंसी से जांच कराने की मांग खारिज कर दी। व्यक्तिगत दुश्मनी निपटाने के लिए न्यायालय को मंच न बनाने की सलाह देते हुए सख्त शब्दों में यह भी याद दिलाया कि जिस तरह न्यायपालिका को बदनाम करने की कोशिश हुई है, उसे अवमानना माना जा सकता था, लेकिन छोड़ रहे हैं। जज लोया की मौत का विवाद बड़े न्यायिक टकराव की वजह भी बनता दिखा था। 12 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीशों जे. चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, एमबी लोकुर और कुरियन जोसफ ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर पीठ के आवंटन की प्रक्रिया पर सवाल खड़े किए। कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमेरिका में एक कार्यक्रम के दौरान न्यायाधीश लोया की मौत पर सवाल उठा चुके हैं और बाकी विपक्षी दल भी इस मौत को अवसर मान कर भुनाते नजर आए। परंतु अब न्यायालय के जरिए सारे राजनीतिक षड्ंयत्र का पर्दाफाश हो गया है। इस पीआईएल पर फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही कहा है कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का मुकाबला चुनाव या संसद में किया जाना चाहिए और व्यवसायिक मुकाबला बाजार में, अदालतें इसके लिए उचित स्थान नहीं हैं। आशा की जानी चाहिए कि देश के राजनीतिक दल, अभियानवादी शक्तियां, मीडिया का एक वर्ग इस फैसले से कुछ सीख अपनी आदतें सुधारेगा।

Updated : 20 April 2018 12:00 AM GMT
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