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केवल हिंदुत्व में ही हस्तक्षेप क्यों ?

केवल हिंदुत्व में ही हस्तक्षेप क्यों ?
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-प्रवीण गुगनानी

दो तथ्य भारतीय न्याय व्यवस्था के समक्ष विनम्रता पूर्वक रखना चाहता हूँ 1. हिंदुत्व हजारों वर्षों से एक विकसित जीवन शैली रही है। और 2. यह सांस्कृतिक जीवन शैली अपना उन्नति मार्ग स्वयं ही खोजती रही है। इसे संक्षिप्त विस्तार दूं तो यह व्यक्तव्य होगा कि हिंदू जीवन शैली व इसके पर्व, उत्सव, त्यौहार, परम्पराएं प्रति 25-50 वर्षों में नया रूप लेते रहे हैं और लेते रहेंगे। हमने इन परिवर्तनों से स्वयं को देशज रहते हुए अन्तर्राष्ट्रीय बनने की सतत यात्रा बना लिया है। यदि संस्कृति में समय के साथ दोष आते हैं तो हम स्वमेव ही उसकी पहचान कर लेते हैं और उसके निवारण का भी हमारा स्वर्णिम इतिहास रहा है।

दीवाली के पटाखों पर अपने निर्णय पर उपरोक्त दो तथ्य व उनकी संक्षिप्त विवेचना के मर्म को न्यायालय श्रीमान यदि समझ लेगा तो संभवत: उसे हिंदुत्व के विषय में अनावश्यक हस्तक्षेपों से बचने की राह मिल जायेगी। भारतीय न्यायालय एवं न्याय व्यवस्था नि:संदेह अपने सभी स्वरूपों में आदरणीय, अनुकरणीय व अनन्य रही है। इसकी अपनी अद्भुत देशज और अन्तर्राष्ट्रीय छवि है किंतु लगता है इन दिनों भारतीय न्याय व्यवस्था को देशज त्याग कर अन्तर्राष्ट्रीय हो जाने का अतीव मोह हो गया है। वर्तमान में दिवाली के पटाखों सहित कई बार अन्य धार्मिक मान्यताओं के विषय में अनावश्यक हस्तक्षेप के संदर्भ में निश्चित तौर पर यह कहना होगा कि न्यायालय ने हिंदुत्व को एक जीवन शैली तो मान लिया है किंतु इस हिंदू जीवन शैली के मूल नैसर्गिक स्वरूप को नहीं समझा जो स्वमेव विकास पथ पर चलता है, धर्म को विज्ञान का आधार देता है, विज्ञान में धर्म का पुट प्रवाहित करता है, पर्यावरण को देवता मानता है, प्रकृति की आराधना करता है, ग्राम, राज्य, देश, पृथ्वी से ऊपर ब्रह्माण्ड के कल्याण की कामना करता है व इन सब सत्कर्मों का कर्ता, नियंता, नियामक होते हुए भी मानव को इन सबका एक माध्यम मात्र मानता है। न्यायालय श्रीमान ने हिंदुत्व के विकास क्रम में आई अवनतियों व उन्नतियों का अध्ययन किया होता तो हिंदुत्व को इस प्रकार के निर्देश देने के स्थान पर परामर्श या संकेत करके स्वयं को अधिक सहज व देश को अधिक सुरभित पाता।

पटाखों पर प्रतिबंध की बात करने वाले इन कथित जनहित याचिकाकर्ताओं और उन्हें त्वरित प्राथमिकता से बिना सोचे सुन लेने वाले न्यायालय से आग्रह है कि वह हिंदुत्व के विकास क्रम के मात्र पिछले दो तीन सौ वर्षों के इतिहास का ही सतही अध्ययन कर लेंगे तो भी उन्हें समझ आ जाएगा कि हिंदुत्व अपनी बुराइयों से निपटने में नैर्सर्गिक रूप से सक्षम है, उसे न्यायालय के निर्देशों की कहीं आवश्यकता नहीं है। न्यायालय तनिक हिंदुत्व विकास के इस सहज, समृद्ध, सबल व संवेदनशील विकास क्रम में आये इन व्यक्तियों व संस्थाओं के नामों को पढ़ भर ले - ब्रह्म समाज, रामकृष्ण मिशन, यंग बंगाल आन्दोलन, थियोसाफिकल सोसायटी, प्रार्थना समाज, आर्य समाज, तत्वबोधिनी सभा, वेदान्त दर्शन, दयानंद एंग्लो वैदिक स्कूल, गुरुकूल कांगड़ी विश्वविद्यालय, सेंट्रल हेंदु कॉलेज, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, कूका व नामधारी आन्दोलन, निरंकारी आन्दोलन, धर्लू नायडू वेद समाज, विधवा आश्रम, सर्वेन्ट्स आॅफ इंडिया सोसायटी, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, संत रविदास, नारायण गुरु, ज्योतिबा फुले, राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, आत्माराम पांडुरंग, गोविन्द महादेव रानाडे, बाबा साहेब अम्बेडकर आदि ये सब हिंदुत्व के सुधारक थे और किसी न्यायालय के आदेश या हस्तक्षेप की उपज नहीं थे। ये मात्र हिंदुत्व जीवन शैली के समृद्ध व सतत चलते विकास क्रम में आये एक पड़ाव मात्र थे। क्षमापूर्वक उल्लेखनीय है कि हिंदुत्व विकास में योगदान करने वाले शताधिक व्यक्तियों व संस्थाओं का उल्लेख समय व स्थानाभाव के कारण यहां संभव नहीं है।

देश भर में जो हिंदुत्व जीवन शैली की प्रथाओं, परम्पराओं के विरुद्ध जिस प्रकार तथाकथित बुद्धिजीवी, अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता, वामपंथी, आधुनिकता वादी लोग न्यायालय में याचिकाएं लगा रहे हैं व हिंदुत्व को विरूप-विद्रूप करने का प्रयास कर रहे हैं उनकी मानसिकता, उनके दुराशय व उनकी पृष्ठभूमि को भी न्यायालय ने नहीं जांचा। इस देश में कुछ लोग हैं जो केवल इसी काम में लगे हुए हैं। न्यायालय द्वारा देशहित में दी गई सुविधा जनहित याचिका का किस प्रकार गलत लाभ इन कथित याचिका कर्ताओं द्वारा उठाया है इस चलन (ट्रेंड) का अध्ययन भी न्यायालय को करना चाहिए। दिवाली पर पटाखों पर प्रतिबंध की बात करने वाले लोग क्रिसमस की आधी रात को जलने वाले पटाखों पर प्रतिबंध हेतु क्यों नहीं आते? ईद पर अनगिनत बकरों के रक्त से इनकी मानवीयता और संवेदनशीलता प्रभावित क्यों नहीं होती? तीन तलाक, हलाला, मुस्लिम बहुविवाह, मस्जिदों से समय-असमय उठती कानफोड़ू आवाजें, मुस्लिम समाज की दस-पांच बच्चों को जन्म देनें की आम प्रवृत्ति, लव जिहाद के योजनाबद्ध कुचक्र, सेवा-शिक्षा-स्वास्थ्य के नाम पर भोले भाले जनजातीय लोगों के ठगीपूर्वक हो रहे अंधाधुंध धर्मांतरण पर ये याचिकाकर्ता क्यों प्रश्न नहीं उठाते? स्वयं भारतीय न्यायालय से भी यह प्रश्न है कि समय समय पर हिंदुत्व से जुड़ी समस्याओं पर स्वयं संज्ञान लेने वाला न्यायालय अन्य धर्मों से जुड़ी ज्वलंत समस्याओं पर अब तक स्वयं संज्ञान लेने से क्यों बचता रहा? भारतीय न्याय व्यवस्था को अब तक भारतीय मुस्लिम स्त्रियों की दोयम दर्जे की स्थिति का ख्याल क्यों नहीं आया? उत्तर स्पष्ट है कि न्यायालय सुविधा चाहता है और असुविधाजनक प्रश्नों से बचना चाहता है। हिंदुत्व के विषय में हस्तक्षेप करने से देश में तीक्ष्ण प्रतिक्रिया नहीं होती यह तथ्य न्यायालय को पटाखों पर प्रतिबंध जैसे अन्य आदेशों हेतु प्रेरित करता है और तीक्ष्ण प्रतिक्रिया का भय या छदम धर्म निरपेक्षता का भूत उसे मुस्लिम महिलाओं की नारकीय स्थिति देखने नहीं देता।

बहरहाल भारतीय न्यायालय से इतना ही निवेदन है कि वह ऐसे चिन्हित याचिकाकर्ताओं से बचे। भारतीय शासन व न्याय व्यवस्था हिंदुत्व को उसके नैसर्गिक, प्राकृतिक व सहज रूप में विकसित होने दे। हिंदुत्व अपने दोषों को चिन्हित करना, उनका निवारण करना, गलत परम्पराओं का उन्मूलन, नई परम्पराओं को विकसित करना, जीवन का वैज्ञानिकी करण करना आदि सब कुछ जानता है। न्यायालय अधिकतम से अधिकतम संकेत या परामर्श किया करे तो उचित रहेगा और यदि उसे आदेश देना है तो वह समुचित, सर्वांगीण व सम्पूर्ण परिवेश की चिंता करे। हिंदुत्व को पकड़ना व अन्यों को अनदेखा करना भारत में असंतोष का एक कारण बन सकता है। समय रहते इससे बचने का अभ्यास करना चाहिए।

Updated : 14 Oct 2017 12:00 AM GMT
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