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राजस्थान का मरूस्थली भूभाग किसी जमाने में था देश का बड़ा व्यापारिक केन्द्र

राजस्थान का मरूस्थली भूभाग किसी जमाने में था देश का बड़ा व्यापारिक केन्द्र
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-Jaisalmer Fort

जैसलमेर आने वाले पर्यटक प्रायः पूछते हैं, इस मरूस्थली पिछड़े भू-भाग में इतने सुन्दर एवं भव्य, किला, मंदिर, महल एवं हवेलियां कैसे बन गए। जब इन्हें बताया जाता है कि यह रेतीला क्षेत्र किसी समय में हिन्दुस्तान का माना हुआ व्यापारिक केन्द्र था तो आश्चर्यचकित हो जाते हैं। इसी भू-भाग से इराक, ईरान समेत अरब देशों को बहुमूल्य वस्तुओं का आयात-निर्यात किया जाता था। यही कारण है कि जैसलमेर में व्यापार के बल पर लक्ष्मी का प्रवाह भरपूर था।

जैसलमेर के व्यापारी उच्च महत्वाकांक्षी थे। धन प्राप्ति के लिए वे नियमित परिश्रम तो करते ही थे, साथ ही ईमानदारी तथा गहन भक्ति व साधना कर भक्ति भाव से लक्ष्मी को खूब रिझाते थे। यहां के स्वर्ण दुर्ग में लक्ष्मीनाथ मंदिर लक्ष्मीजी की आराधना का प्रमुख स्थान है। लक्ष्मीनाथ (लक्ष्मी एवं विष्णु), यहां धन, यश, सुख एवं शांति के प्रतीक के रूप में पूजनीय हैं तथा इस मंदिर का इतिहास एवं स्थापत्य कला बेजोड़ है। जैसलमेर के चन्द्रवंशी भाटी महारावल लक्ष्मीनाथजी को राज्य का मालिक तथा स्वयं को राज्य का दीवान मानकर शासन किया करते थे। राज्य के समस्त पत्र व्यवहार, अनुबंधन एवं शिलालेखों पर सर्वप्रथम लक्ष्मीनाथजी शब्द लिख कर शुभारंभ करने की परम्परा रही है। परम्परानुसार मंदिर के लिए सामग्री भी राजघराने की ओर से दी जाती थी।

दुर्ग में बने इस मंदिर का निर्माण महारावल बेरसी के राज्यकाल में माघ शुक्ला पंचमी शुक्रवार अश्वनी नक्षत्र में विक्रम संवत 1494 को हुई थी। लक्ष्मीनाथ की मूर्ति सफेद संगमरमर में तराशी हुई है। इसका मुख पश्चिमी दिशा की ओर है तथा घुटने पर अर्द्धांगिनी लक्ष्मी विराजमान हैं। मूर्ति का सिर, कान, हाथ, कमर, पांव स्वर्णाभूषणों एवं विविध वस्त्रों इत्यादि से सजे संवरे है। मूर्ति में लक्ष्मीनाथ एवं लक्ष्मी का स्वरूप मारवाड़ी सेठ-सेठानी सरीखा दिखता है।

हीरों पन्नों व सोने चांदी के बर्तनों, आभूषणों से लक्ष्मीनाथ जी का भंडार भरा है। मंदिर की सम्पन्नता का मुख्य कारण स्थानीय सेठों द्वारा आय का कुछ भाग नियमित चढ़ावा रहा है। लोग व्यावसाययिक गतिविधियां शुरू करने से पूर्व लक्ष्मीनाथ से मन्नत मांगते थे। जब मन्नत पूर्ण हो जाती थी, तब लोग लक्ष्मीनाथ के चरणों में खुलकर बहूमूल्य श्रद्धासुमन अर्पित करते थे। इसके अलावा विवाह इत्यादि पर कुछ जातियों से कर वसूला जाता था, जो मंदिर में जमा होता था। इसका संचालन राज्य कामदारों एवं प्रतिष्ठित माहेश्वरी सेठों की एक कमेटी करती थी।

शाकद्विपीय भोजक ब्राहमण मसूरिया सेणपाल के वंशज इसके पुजारी हैं। मंदिर सवेरे एवं सायं खुलता है। दिन में कुल पांच आरतियां कर लक्ष्मीनाथ का यशोगान किया जाता है। सेणपाल के वंशज बढ़ने के कारण पुजारी बारी-बारी से बदलते रहते हैं। पुजारी को वेतन नहीं मिलता बल्कि जलोट (पाट) कर आया चढ़ावा मिलता है। लक्ष्मीनाथ की सेवा के दौरान पुजारी को पारंपरिक रीति-रिवाज निभाने पड़ते हैं। परम्परानुसार लक्ष्मीनाथ को दूध के मावे का पेड़ा प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता है। यहां आने वाले सभी भक्तों को मावे का प्रसाद व पवित्र जल चरणामृत के रूप में दिया जाता है। इसके साथ ही विविध व्यंजनों का प्रतिदिन भोग लगाया जाता है। यहां आने वाला भक्त चन्दन का टीका भी लगाता है, जो मंदिर में हमेशा रहता है।

लक्ष्मीनाथ जी का मंदिर स्थापत्य कला की दृष्टि से बेजोड़ कृति है। इसके स्तंभों, पत्थरों में खुदी महीन पुष्पलताएं, देव प्रतिमाएं, पशु पक्षी आदि चित्रात्मक है। मंदिर के सभा मंडप में बनी रंग रोगन की चित्रकारी भी नयनाभिराम है। मंदिर की दीवारों, तोरणों व खम्भों को देखने से आभास होता है कि मंदिर की स्थापत्य कला 14वीं सदी की न होकर पूर्व की है। ऐसा लगता है कि इसके पत्थर किसी पूर्व ध्वस्त मंदिर से लाकर लगाए गए हैं। प्रारंभ में यह मंदिर छोटा था, ऐसा माना जाता है कि कुछ पर्चों, चमत्कारों के कारण इसका विकास हुआ।

-लक्ष्मी नारायण खत्री

Updated : 19 Oct 2017 12:00 AM GMT
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