ज्योतिर्गमय
किसी का बुरा मत सोचिए
किसी व्यक्ति की उसके सम्मुख उसकी बुराई करना, उतना पाप नहीं, जितना अपने मन में उसके प्रति बुरा सोचना। क्योंकि बुराई तो उस व्यक्ति के अवगुणों को देखकर की जाती है, जिसकी आलोचना करना कोई अपराध अथवा पाप नहीं है। परंतु उसके प्रति अपने मन में बुरे विचार रखना अथवा उसका अनिष्ट चाहना, किसी-किसी पर कुदृष्टि रखने का अर्थ होगा कि आपके मन में पाप है, आप उस व्यक्ति से अनुचित लाभ उठाना चाहते हैं, आप अपनी आत्मा की पुकार के विरुध्द कार्य करना चाहते हैं, जो उस परमपिता परमात्मा की दृष्टि में एक महान अपराध है।
दूसरों का बुरा सोचने में, उनका अनिष्ट चाहने में कुछ लाभ भी नहीं होता, अपितु अपनी ही हानि होती है। देखने में हमें चाहे कुछ लाभ प्रतीत होता हो, परंतु वास्तव में हमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में एक महान क्षति पहुंचती है। उदाहरण के लिए आप मान लीजिए कि दो भाई हैं, उनमें से एक के पास बड़ी धनराशि है और दूसरा भी धनी, परंतु कुकर्मी है। वह अपने भाई की धनराशि की प्राप्ति पर मन ही मन बहुत प्रसन्न होता है परंतु वास्तव में यदि देखा जाए तो वह अपने को घोर संकट में डाल देता है। सदैव उसका डर लगा रहता है। वह प्रत्येक व्यक्ति को संदेहात्मक दृष्टि से देखने लगता है। अपनी सबसे बड़ी हानि तो वह यह करता है कि अपने भाई को जो उसका एक हाथ था, खो बैठता है। अब आप ही सोच सकते हैं कि उसे लाभ हुआ या हानि? इसी प्रकार अनेक ऐसे ज्वलंत उदाहरण दिए जा सकते हैं, जो इससे हानि होने की ही राम कहानी सुनाते हैं। किसी व्यक्ति के प्रति बुरी भावना रखने से अपनी ही हानि अधिक होती है, उस व्यक्ति को तो पता तक नहीं होता कि कोई उसके बारे में बुरे विचार रखता है, किसी के प्रति ईष्या भाव हो तो स्वयं ईष्या करने वाले का ही रक्त जलता है तथा मानसिकता विचारणा ही दूषित होती है। मन अशांत रहने पर भी दिनचर्या पर बुरा प्रभाव पड़ता है। दूसरों का अनिष्ट चाहने वाला पहले अपनी ही हानि करता है। कहावत भी है कि जो दूसरों के लिए गङ्ढा खोदता है, पहले स्वयं ही उसमें गिर जाता है।