जनमानस

इतना उदार होना अच्छा है?


इतिहास लाक्षी है कि सनातन धर्म में उदारता, क्षमा, सहनशीलता जैसे महान भाव कूट-कूट कर भरे हंै यहां तक कि बहुत बड़े अपराधी को भी गल्ती स्वीकारने पर क्षमा कर दिया जाता है। परन्तु कहीं दुष्टता की अति हो गई तो वह कितना भी बड़ा क्यों ना हो उसका संहार ही हुआ है। आज के कम्प्यूटर युग में लोगों की मानसिकता विस्तारित तो जरूर हुई है परन्तु जीवन का आधार संस्कार, संस्कृति और इन सबका प्रणेता धर्म अर्थात आस्था में कमी आई है। यही कारण है कि सनातन धर्म पर या देवी-देवताओं पर कोई भी ऐरा-गेरा आदमी कुछ भी बोलता रहता है जिससे हिन्दुओं की भावनाओं को अत्यंत गहरी ठेस पहुंचती है बाद में कुछ गलती मान लेते हैं तो कोई कुत्ते की दुम की तरह सुधरने को तैयार भी नहीं होता। इससे अन्य मताविदों को खिल्ली उड़ाने का मौका मिल जाता है। लेकिन ओछी मानसिकता वाले लोग हिन्दुओं की आस्था पर बार-बार चोट करते रहते हैं। अब प्रश्न उठता है कि अन्य पंथ जैसे इस्लाम, ईसाई के बारे में फिजूल की एक बात भी नहीं कर सकता कोई क्योंकि वे कट्टर होते हैं तो क्या हिन्दुओं को भी वही रास्ता अपनाना पड़ेगा या अपनाना चाहिए कि सनातन धर्म के देवी-देवताओं के बारे में कोई अनर्गल टिप्पणी ना कर पाए ना ही चित्रों के साथ मनमर्जी का गन्दा दिमाग चला पाए। चाहे चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन की करतूत हो या नेताओं द्वारा आस्था पर टीका टिप्पणी सभी बहुत दु:खद है। कहते हैं वह स्थिति पर बात ना पहुंच जाए कि अत्याचार करने से ज्यादा सहने वाला ज्यादा पापी बन जाए।
उदयभान रजक, ग्वालियर

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