ज्योतिर्गमय
ईश्वर की मनुष्य से याचना
जोप्रकाश पुंज है, जिसके मन में दाता का भाव है, जो स्तुति से, आराधना से, तथा तप से प्रसन्न होता है, तथा इनके प्रति निरपेक्ष हो जो समदर्शी है। संसारिक सुख-दुख से जो विमुख हैं। जो परालौकिक शक्तियों के स्वामी हैं तथा जो अजर हैं- अमर हैं, शास्त्रों के अनुसार वह ईश्वर हैं- देव हैं । भारतीय जन की आस्था के मूलाधार हैं भगवान क्योंकि वह सभी की मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं। जो सबकी इच्छाओं को पूरित करने वाला है जिसके पास सब सुख हैं, सब साधन हैं, उसे किसी भी चीज का आभाव नहीं है पर वह यदि याचक हो जाये तो अवश्य ही कोई रहस्य को उजागर करने ईश्वर याचक बना होगा। याचक का कार्य है मांगना याचना का एक और व्यवहारिक तथ्य है कि जिसके पास जो है उसके पास उस वस्तु को मांगने वह आयेगा, जिसके पास वह वस्तु नहीं है। इस बात को हम इस आधार पर समझ सकते हैं कि जिसको धन की आवश्यकता है वह धन की देवी लक्ष्मी जी की आराधना करेगा ना कि बुध्दि की देवी सरस्वती की। इसी तरह जिसको शक्ति चाहिये वह दुर्गा जी की आराधना करेगा ना कि अन्नपूर्णा की। स्पष्ट है कि एक सामान्य याचक, दाता से वही वस्तु मांगता है जो दाता के पास तो है पर याचक के पास उसका आभाव है। इसी तरह एक सामान्यदाता याचक को वह वस्तु देने में तो समर्थ है, जो उसके पास है पर जिस वस्तु का दाता स्वयं स्वामी नहीं है, उस वस्तु को दाता याचक की मांग पर भी देने में असमर्थ रहता है। यह तो संदर्भ हुआ एक सामान्य दाता और सामान्य याचक का। अब यदि ईश्वर याचक है तो वह स्वयं के लिये नहीं मांग रहे होंगे, अत: वह सामान्य याचक नहीं है और यदि वह मनुष्य से याचना कर रहे हैं तो यह भी संकेत है कि ईश्वर की दृष्टि में मनुष्य सामान्यदाता नहीं है अपितु एक विशिष्ट दाता है। विशिष्ट दाता एवं विशिष्ट याचक के इस दृष्टान्त को राष्ट्रकवि गुरूवर रविन्द्रनाथ टैगोर ने बंगलाभाषा में लिखी एक कविता में बहुत सहज एवं सरल भाव से अंकित किया है। कविता के माध्यम से याचक बने भगवान नदी से जल चाहते हैं, वृक्ष से फल, एवं पुष्प चाहते हैं, फूल से सुगंध मांगते हैं, कोयल से मधुर वाणी मांगते हैं, लेकिन मनुष्य के संबंध में भगवान की मांग या मनुष्य से अपेक्षा एकदम अलग है। मनुष्य को छोड़कर बांकी सभी से ईश्वर वह साधन मांगते हैं जो ईश्वर ने ही दिये हैं। पर मनुष्य से ईश्वर की मांग विचित्र है। जो ईश्वर ने ही मनुष्य को नहीं दिया, उनको ईश्वर मनुष्य से मांग रहा है। ईश्वर ने मनुष्य को मृत्यु दी है- पर ईश्वर मनुष्य से मृत्यु नहीं मांग रहा वह मनुष्य से अमरता मांग रहा है जो कि ईश्वर ने मनुष्य को नहीं दी। मनुष्य के पास अंधकार है पर ईश्वर की मनुष्य से मांग प्रकाश की है। ईश्वर की यह विसंगत अपेक्षा जो मनुष्य को दिया ही नहीं या जो मनुष्य के पास है ही नहीं उसकी मनुष्य से मांग ही इस बात का संकेत देती है कि मनुष्य असाधारण शक्तियों का मालिक है। ईश्वर की मनुष्य से इस असंभव अपेक्षा के संबंध में स्वनाम धन्य चिंतक एवं मनीषी साने गुरूजी का कथन है कि मनुष्य को असम्भव को संभव करने का उत्तरदायित्व देते समय ईश्वर का मानना है कि सारी सृष्टि में मनुष्य ही श्रेष्ठ प्राणी है। अत: असम्भव को सम्भव करने की अपेक्षा किसी अन्य प्राणी से नहीं , सिर्फ मनुष्य से ही की जा सकती है। जिस तरह किसी वीर पुरूष से मच्छर को मारने का कहना उस पुरूष की वीरता का अपमान है। उसी तरह मनुष्य से किसी छोटी कामना की पूर्ति मांगना, मनुष्य की विशिष्ट शक्ति का अपमान है। ईश्वर को विश्वास है कि चौरासी लाख योनियों के बाद जन्म लेने वाला मनुष्य विलक्षण शक्तियों को जाग्रत एवं सृजित कर मेरी याचना की पूर्ति कर सकता है। मनुष्य शक्तियों का श्रोत है, इस कथन की पुष्टि हम सब अपने जीवन में झांक कर कर सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का यह अनुभव होगा कि जीवन में एक समय आता है जब हम दूसरे से सहायता की अपेक्षा करते हैं। जबकि आत्मविश्लेषण करने पर अक्सर यह तथ्य उजागर होता है कि जो भी सहायता हमें मिली वह या उसकी पात्रता हमारे अंदर पहले से ही विद्यमान थी और वही मिली। बावजूद इसके यह चिन्तन-मनन एवं खोज का विषय है जिसे वेद एवं शास्त्र भी कहते हैं कि मनुष्य अनन्त शक्ति का मालिक है, वह जो चाहे सो कर सकता है। मानव मनोविज्ञान भी मनुष्य को अपरिमित शक्तियों का स्वामी निरूपित करता है। मनोविज्ञान के अनुसार मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों को सीमा में नहीं बांधा जा सकता। विज्ञान भले ही किसी असम्भव को संभव न कर पाये पर मनुष्य असंभव को संभव करने की अदभुद शक्ति धारण करता है। शक्तियां बीज रूप में मनुष्य की विचार धरातल पर सदैव विद्यमान रहती हैं। इन शक्तियों की संख्या कितनी है एवं इन शक्तियों में परस्पर किस आधार पर संतुलन है यह सुनिश्चित नहीं है। अध्यात्म की भाषा में मनुष्य के अन्दर उपस्थित इन शक्तियों को योग -संयोग कहते हैं। शक्तियों के योग- संयोग की युति को योग: कर्मषु कौशलम् के रूप में रेखांकित किया गया है। शक्तियों के संतुलन का यह कौशल ही मनुष्य को असम्भव को सम्भव करने की देवीय शक्ति देता है।