उत्तरप्रदेश सरकार-पहली छह माही,अपनों से संघर्ष के बीच रास्ता तलाशते अखिलेश
लखनऊ | क्या समाजवादी पार्टी के सुप्रीमों मुलायम सिंह यादव बेहद जल्दी में है? या वे यह समझ रहे हैं कि देश में चुनाव अगर अपने तय समय पर हुए तो 7 रेसकोर्स रोड नई दिल्ली की चाबी उनके हाथ से खिसक सकती है। आज जब प्रदेश के एवं देश के सारे बड़े दिग्गज दूर कोलकाता में भावी रणनीति पर सिर खपा रहे हैं राजधानी लखनऊ में यह चर्चाएं सियासी वातावरण को गरम किए हुए हैं। खासकर यह चर्चाएं इसलिए और है कि संयोग से कल प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सरकार अपने कार्यकाल के छह माह पूरे कर रही है। जानकारों का मानना है कि उम्मीदों पर सरकार का खरा उतरना बाकी है। शुरुआती दौर में गलतियां भी हुई हैं, जनता आशंकित भी हुई है। पर युवा अखिलेश यादव से व्यक्तिगत तौर पर जनता का मोह भंग नहीं हुआ है और वे यह मानते हैं कि अखिलेश यादव को अभी समय बेहद कम मिला है उनमें काम करने का जज्वा है और अगर उन्हें फ्री हैंड दिया गया तो वे प्रदेश की तस्वीर बदलने का सार्थक प्रयास कर सकते हैं।
उल्लेखनीय है कि आज से ठीक छह माह पहले समाजवादी पार्टी ने दो राष्ट्रीय राजनीतिक दलोंको तीसरे एवं चौथे स्थान पर बिठाकर प्रदेश को बसपा के भ्रष्ट तंत्र से मुक्ति दिलाई थी। राजनीतिक जानकारों का तब भी मानना था कि सपा के राज में गुंडा राज हावी होता है पर अखिलेश यादव के सख्त तेवरों के चलते प्रदेश की जनता ने अपना सम्पूर्ण विश्वास सपा में प्रगट किया और पार्टी को दो तिहाई बहुमत मिला। परन्तु इन छह माह का कड़वा सच यह है कि गुंडा तत्व फिर हावी हुए और अखिलेश सरकार के तमाम प्रयास नाकाफी दिखाई दिए। यही वजह रही जैसा कि भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता नरेन्द्र सिंह राणा कहते हैं कि लोग कहने लगे कि इससे तो बेहतर बहनजी की भ्रष्ट सरकार थी। परन्तु इस आरोप को सपा प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी खारिज करते हुए कहते हैं कि यह दुष्प्रचार है। छोटी छोटी घटनाओं को तूल दे दिया गया है और सरकार प्रभावी ढंग से कानून व्यवस्था को बनाए रखने में सफल है। आरोप प्रत्यारोप को छोड़ भी दें पर न केवल कानून व्यवस्था अपितु हर मोर्चे पर अखिलेश यादव को फिलहाल संघर्ष अपनों से ही करना पड़ रहा है। यह एक सच है। सरकार में शक्ति केन्द्र कई हैं। पहला स्वयं मुलायम सिंह हैं जिन्होंने राह तो दिल्ली की पकड़ी पर उनका मन 5 कालिदास मार्ग लखनऊ मुख्यमंत्री निवास) में ही अटका हुआ है। फिर रामगोपाल यादव है जो सांसद हैं और जिन्हें पार्टी का थिंक टैंक माना जाता है। लखनऊ में आए तो शिवपाल यादव है। जिनका अपना एजेंडा है और चौथे आजम खांन है जो मुस्लिम वोटों के नाम पर अपनी कीमत वसूलते हैं। अखिलेश यादव को रास्ता इन चार महारथियों के बीच में से निकालना है। वे स्वयं भी यह जानते हैं कि प्रदेश की जनता ने वोट उनकी साफ सुथरी छवि को देख कर दिया है। पर वे स्वयं अभी अपने विवेक से, मन से निर्णय ले सकें, ऐसी स्थिति अभी बनने में समय भी है और इतना स्वतंत्र उन्हें स्वयं नेताजी (मुलायमसिंह) ने छोड़ा भी नहीं है।
यही वजह है कि प्रदेश सरकार अपने कई निर्णयों पर रोल बैक करती दिखी। वहीं भ्रष्ट तंत्र जो मायावती सरकार में हावी था। आज भी मलाईदार ओहदों पर बैठने में सफल है। इतना ही नहीं प्रदेश के दिग्गज मंत्रियों से अनबन की सार्वजनिक खबर भी सरकार की सेहत के लिए खराब है। बहरहाल बावजूद इन विपरीत हालातों के प्रदेश में जो अराजकता का वातावरण सरकार बनने के तुरंत बाद था आज उसमें कमी आई है। मुख्य सचिव से लेकर मैदानी स्तर के अधिकारियों तक सीधे संवाद में अखिलेश यादव धीरे-धीरे सफल हो रहे हैं। बेरोजगारी भत्ते की नीति सही या गलत यह बहस का विषय है पर उसे लागू कर वे यह संदेश देने में सफल हुए हैं कि घोषणा पत्र पर सरकार गंभीर है। कृषि एवं पशुपालन उद्योग एवं बिजली को लेकर महत्वाकांक्षी परियोजनाएं गति पकड़ रही हैं। लखनऊ में मायावती की मूर्ति टूटने के बाद जो हालात बिगड़ सकते थे उसे किस प्रकार शांति से संभाला जा सकता है यह भी प्रदेश सरकार ने दिखलाया है। लेकिन 2014 चूंकि ज्यादा दूर नहीं है। निकाय चुनावों में भाजपा शानदार वापसी कर चुकी है। इसलिए मुलायम सिंह की यह चिंता जायज है कि चुनाव जितनी देर से होंगे जनता की उम्मीदें टूट सकती हैं। और इसी को बचाए रखना अखिलेश यादव की सबसे बड़ी चुनौती है। क्या वे सफल होंगे इस सवाल का जवाब आने वाला समय देगा। वहीं मुलायम सिंह यादव को यह भी समझना होगा कि वे आज भले ही पार्टी को राष्ट्रीय विस्तार देनेकी बात कहें। पर ये तभी संभव है। जब वे अपनी जमीन याने उत्तरप्रदेश में बने रहें।