ज्योतिर्गमय
दर्शन का अर्थ
दर्शन शब्द का अर्थ जहां देखना है, वहीं उसका एक अर्थ विवेचना या विचारणा भी है। अनेक लोग देव प्रतिमाओं, तीर्थ स्थानों, संत एवं सत्पुरुषों के दर्शन करने आया करते हैं, वे इसमें पुण्य लाभ का विश्वास करते हैं। शुभ व्यक्तियों अथवा शुभ स्थानों का दर्शन करना शुभ ही है। किंतु उसका वास्तविक लाभ तभी हो सकता है जब दर्शन को देखने तक ही सीमित न रखा जाए, बल्कि उसके अंदर निहित विचारणा पर भी ध्यान दिया जाए। कितनी ही श्रद्धा, भक्ति एवं भावना से किसी देव प्रतिमा, संत पुरुष अथवा तीर्थ स्थान के दर्शन क्यों न किए जाएं, उसके वास्तविक लाभ तब तक संभव नहीं जब तक उस व्यक्ति, प्रतीक अथवा स्थान की उन विशेषताओं को हृदयंगम न किया जाएगा जिनके कारण उनका महात्म्य है।
दर्शन मात्र से स्वर्ग, मोक्ष, सुख, शांति, संपत्ति अथवा प्रसिद्धि आदि का लाभ पाने का विश्वास रखने वालों की श्रद्धा को विवेक सम्मत नहीं माना जा सकता। उनकी अति श्रद्धा अथवा अति विश्वास एक प्रकार से अज्ञानजन्य ही होता है, जिसे अंध-विश्वास अथवा अंध-श्रद्धा भी कहते हैं। अंध-विश्वासियों अथवा अंध-श्रद्धालुओं को अपनी अविवेकपूर्ण धारणाओं से लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक होती है।
भोले लोगों की यह अंध-श्रद्धा उन्हें दर्शन के मूल प्रयोजन एवं उससे होने वाले लाभ से वंचित ही रखती है। लाखों-करोड़ों लोग प्रति वर्ष तीर्थ तथा तीर्थ पुरुषों के दर्शन करने देश के कोने-कोने से आते-जाते हैं। किंतु क्या कहा जा सकता है कि इन लोगों को वह लाभ होता होगा, जो उन्हें अभीष्ट रहता है। निश्चय ही नहीं। उन्हें इस बाह्य दर्शन द्वारा एक भ्रामक आत्म-तुष्टि के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिल सकता। यदि केवल देव प्रतिमा, देव स्थान अथवा देवपुरुष को देखने मात्र से, हाथ जोडऩे, प्रणाम करने, पैसा अथवा पूजा प्रसाद चढ़ा देने भर से ही किसी के पापों का क्षरण हो जाता, दुख दूर हो जाता और पुण्य, परमार्थ, स्वर्ग मुक्ति आदि मिल सकते व जीवन में तेजस्विता, देवत्व अथवा निद्र्वद्वता का समावेश हो सकता, तो दिन-रात देव प्रतिमाओं की परिचर्या करने वाले पुजारियों, मंदिरों की सफाई-देखभाल करने वाले सेवकों को यह सभी लाभ अनायास ही मिल जाते।
उनके सारे दु:ख दूर हो जाते और वे सुख-शांति पूर्ण स्वर्गीय जीवन के अधिकारी बन जाते, किंतु ऐसा देखने में नहीं आता। मंदिरों के सेवक और प्रतिमाओं के पुजारी भी अन्य सामान्य जनों की भांति ही जीवन में दुखों तथा शोक-संतापों को सहते रहते हैं। उनके जीवन में रंचमात्र भी परिवर्तन नहीं होता, यद्यपि उनकी पूरी जिंदगी देव प्रतिमाओं के सान्निध्य एवं देवस्थापन की सेवा करते बीत जाती है।