ज्योतिर्गमय
आदर्श का अनुसरण
भारत में आदर्शवादिता की बात करने वालों की कोई कमी नहीं है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि यदि तुम आदर्श की बात करते हो और उसे अपने व्यवहार में नहीं उतारते, तो तुमसे अच्छे तो चोर, डाकू और लुटेरे हैं, क्योंकि उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं होता। लोग आदर्शो व सिद्धांतों का जोर-शोर से समर्थन तो करते हैं, परंतु अपने सामान्य जीवन में आदर्शो पर अमल नहीं करते। आदर्शवादिता का दिखावा मात्र न मानकर वास्तविकता से उसे जोडऩा चाहिए। आज आदर्श और व्यवहार के मध्य एक खाई उत्पन्न हो रही है। कहा जा सकता है कि आदर्शो को मान्यता उत्तम जीवन जीने के लिए प्रदान की गई है और उनमें ही जीवन की सार्थकता खोजी जाती है। आदर्श व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन को सुख-शांति प्रदान करने के लिए ही स्थापित किए जाते हैं।
इस संदर्भ में सवाल उठता है कि हम आदर्शो की प्रवंचना क्यों करते हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि हम समझते हैं कि आदर्श जीवन को बोझिल व कष्टकारी बनाते हैं। जीवन को मधुर बनाने के लिए हम आदर्शो को एक कोने में डाल देते हैं। सत्य, न्याय, त्याग, प्रेम, पवित्रता, उदारता, सहिष्णुता, करुणा और क्षमा जैसे आदर्शो से जीवन उदात्त और आनंदपूर्ण बनता है। इन आदर्शो को अपनाने वाला व्यक्ति अपनी चेतना में आनंद और शांति की ऐसी धारा प्रवाहित करता है जिसमें नहाकर अन्य लोग भी प्रफुल्लित हो उठते हैं। इसके विपरीत असत्य, अन्याय, स्वार्थ, रुक्षता, मलिनता, कृपणता, आवेश, क्रूरता और प्रतिशोध की भावनाएं न जीने-जागने देती हैं और न सोने और चैन लेने देती हैं। आदर्शो के लिए हमारे मनीषियों ने एक शब्द खोजा है-जीवन मूल्य यानी जीवन ही जिसका मूल्य है। मनुष्य को सबसे बढ़कर जीवन ही प्रिय है। चाहे करोड़ों रुपये हों, परंतु जीवन संकट में पड़ा हो तो उसे बचाने के लिए समस्त संपत्ति खोने के लिए भी मनुष्य तैयार हो जाता है। धन-संपत्ति ही नहीं, विद्या, अधिकार, ज्ञान, परिवार, पत्नी, बच्चे और समाज आदि सब कुछ जीवन की तुलना में गौण लगता है और यह विस्मित कर देने वाली बात है कि जिस जीवन की तुलना में सब कुछ तुच्छ है, वह जीवन आदर्शो के लिए बलि चढ़ा देना प्रशंसनीय समझा गया है।
यही है हमारी संस्कृति की धरोहर यानी आदर्शो की पराकष्ठा।