ज्योतिर्गमय
कर्मयोग
मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का पालन करके दूसरे के अधिकार की रक्षा करना कर्मयोग कहलाता है। जैसे माता-पिता की सेवा करना पुत्र का कर्तव्य है और माता-पिता का अधिकार है। दूसरों का अधिकार ही हमारा कर्तव्य होता है। अत: प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्तव्य पालन द्वारा दूसरों के अधिकार की रक्षा करनी चाहिए। दूसरों का कर्तव्य देखने से मनुष्य स्वयं कर्तव्य विरत हो जाता है। दूसरों के कर्तव्य देखना हमारा कर्तव्य नहीं है। यद्यपि अधिकार कर्तव्य के ही अधीन है, तथापि मनुष्य को अपने अधिकार का त्याग करना चाहिए। दूसरे का कर्तव्य देखना तथा अपने अधिकार के लिए अडऩा पतन के गर्त में गिराने वाला है। वर्तमान समय में घरों में, समाज में, देश में तथा सारी दुनिया में जो अशांति, कलह, संघर्ष देखने में आ रहा है उसका मूल कारण यही है कि लोग अपने अधिकारों की लड़ाई तो लड़ते हैं, परंतु अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते। भारतीय संस्कृति का एकमात्र उद्देश्य मनुष्य का कल्याण करना है। लोक-कल्याण का भाव कर्मयोगी की पूंजी है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वस्तुओं को अपना मानकर स्वयं उनका भोग करने वाला चोर है। देवता, ऋषि, पितर, पशु-पक्षी, वृक्ष-लता आदि सभी स्वभावत: अपने-अपने कर्तव्य का पालन करते हैं।
श्रीकृष्ण का यह भी कथन है कि यदि मैं सावधानीपूर्वक कर्तव्य का पालन न करूं तो समस्त लोक नष्ट-भ्रष्ट हो जाए। यदि मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता तो पृथ्वी पर ही नहीं, आकाश और समुद्र में भी हलचल उत्पन्न हो जाती है। परिणामस्वरूप अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प आदि प्राकृतिक प्रकोप होने लगते हैं। जिस तरह चलती हुई बैलगाड़ी का कोई एक पहिया टूट जाए तो उससे पूरी बैलगाड़ी को झटका लगता है उसी तरह गतिशील सृष्टि-चक्र में यदि एक व्यक्ति भी कर्तव्यविरत होता है तो उसका विपरीत प्रभाव संपूर्ण सृष्टि पर पड़ता है। अतएव अपने कर्तव्य का यथोचित पालन करते हुए हमें कर्मयोग के पथ का पथिक बनना ही चाहिए।