ज्योतिर्गमय
आत्मा में झांककर देखिए खुल जाएंगे सारे राज
अभी तो मान लीजिए कि संचार साधनों के कारण दुनिया बहुत छोटी हो गई है और क्षण भर में किसी भी घटना की सूचना धरती पर सभी दिशाओं में घूम जाती हैं। लेकिन हजारों साल पहले जब ये साधन नहीं थे तो धार्मिक और अध्यात्मिक विवरणों की समानता का क्या रहस्य रहा होगा?
अपने भीतर झांकने पर कैसे लोग एक ही तरह के प्रतीकों से समझते होंगे। इसे महज संयोग कह कर टालने की बजाय नासिक के योगी स्वामी सर्वानंद सरस्वती ने खोजना और अध्ययन शुरु किया है।
उनके अनुसार यह समानता मनुष्य की चेतना में सामंजस्य और आध्यात्मिक अनुभूतियों के एक ही तरह के बिंबों के कारण हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय परंपरा में मनु को आदि पुरुष कहा गया है। प्रलय के समय उनके एक नाव में सृष्टि बीजों को लेकर हिमालय के शिखर पर चले जाने की पौराणिक कथा प्रसिद्ध है। मध्य एशियाई देशों में हजरत नूह की कथा भी लगभग इसी प्रकार की है।
ओम को प्राय: सभी धर्मों में आदि अक्षर के रूप में मान्यता प्राप्त है। ओम या आमीन शब्द को दुनिया का पहला स्वर माना गया है। बुद्धिजीवियों के अनुसार अवतार या धर्म प्रवर्तक की धारणा मनुष्य के भीतर बैठे असुरक्षा के भय से उत्पन्न हुई होगी। लेकिन गुहा मानव के उकेरे हजारों लाखों साल पुराने जो चित्र मिले हैं उनमें कहीं नहीं लगता कि आदि मानव को किसी चीज का खौफ होगा।
आयुर्वेद के अनुसार, भय मनुष्य की वृत्ति जरूर है लेकिन वह भौतिक उपलब्धियां अर्जित करने के बाद ही जन्म लेती हैं। उनपर विजय पाना हो तो आध्यात्मिक अनुभवों की पुकार जरूरी है। इस पुकार से ही अनंत आकाश, ध्वनि, विलक्षण स्वर, अलौकिक लगने वाली अनुभूतियां और इसी तरह की भाव संवेदनाएं आवश्यक हैं।
कठोपनिषद की व्याख्या करते हुए आदि शंकराचार्य ने कहा कि ध्यान की अवस्था में तारे, नक्षत्र, चमक और उल्लास की अनुभूति सफलता के लक्षण है।
लगभग ये ही बातें बाइबल, जेदांवस्ता, त्रिपिटक आदि विभिन्न धर्मग्रंथों में भी कही गई हैं।
निश्चित ही ये ग्रंथ जब भी तैयार हुए होंगे तो धर्मानुयायियों के संपर्क इतने जीवंत और सघन नहीं रहे होंगे। उस स्थिति में अध्यात्मविदों की राय में अनुभवों की यह एकरूपता, समानता और समरसता सभी मनुष्यों के किसी आंतरिक सूत्र से जुड़े होने की बात सिद्ध करती है