प्रसंगवश

उफ! इस नामर्दी की दवा क्या है

  • लोकेन्द्र पाराशर 

कहते हैं मोहनदास करमचंद गांधी अहिंसा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने यहां तक कहा कि कोई आपके एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल आगे कर दो। परन्तु कोई दूसरे पर भी रसीद कर दे तो क्या करें? गांधी तो चले गए, लेकिन गांधीजी की सौगंध खा खाकर इस देश को डकारने में जुटी कांग्रेस के पास आज तक इस बात का उत्तर नहीं है कि दोनों गाल थप्पड़ खा खाकर फट जाएं, तब भी क्या करें? गांधीजी ने भले किसी विशेष परिप्रेक्ष्य में यह कहा होगा, लेकिन हमारी सरकार गांधी की अहिंसा और अपनी नपुंसकता में भेद करने को तैयार नहीं है।
बात 1962 से ही की जानी चाहिए, जब हमारे परम सिद्ध पश्चिम मिजाज प्रधानमंत्री को अपने ऐशो आराम के आगे हिन्दी चीनी भाई-भाई की कुटिलता समझने की फुर्सत नहीं मिली। देश ने मुंह की खाई। लेकिन हमने लता मंगेश्कर से एक गीत गवाने के अलावा जवानों के जीवन की कीमत लौटाने का कोई उपक्रम नहीं किया। हम निंदा करते हैं, भत्र्सना करते हैं। ज्यादा घरेलू दवाब होता है तो कह देते हैं, सभी आवश्यक कदम उठाए जा रहे हैं। हमारे प्रधानमंत्री बेहद निर्लज्ज और कायराना कथन कहते है कि चीन की जिस ताजा घुसपैठ की चर्चा की जा रही है वह स्थानीय विवाद है। उफ! इस नामर्दी की दवा क्या है! जिनके नेतृत्व में 1962 का युद्ध हारे, उन्हें भी चीन के कब्जे में चला गया भू-भाग बंजर ही नजर आता था।
अरे भाई किसी व्यक्ति का और उसके परिवार का भी कोई स्वाभिमान होता है। कोई बढिय़ा भोजन, कपड़े और मकान प्रदान करके सुबह शाम चार-चार जूते आपकी चांद पर लगाए, तो आप क्या कहेंगे? बहुत आनंद है जीवन में! हमारे इस महापरिवार भारत राष्ट्र के साथ कमोवेश यही हो रहा है। जब पाकिस्तान जैसा पिद्दी हमारे सैनिकों की गर्दन रेत देता है तो हमारे विदेश मंत्री को सैनिकों के जीवन और इस राष्ट्र के सम्मान से अधिक चिंता इस बात की होती है कि पाकिस्तान के संबंध सुधारने में हुए 'इन्वेस्ट पर आंच न आए? विदेश मंत्री ने इतना कहा ही नहीं, चंद दिनों बाद दुश्मन देश के प्रधानमंत्री को जयपुर में लाल मांस भी परोसा। कौनसे प्रोटोकॉल के तहत आता है यह सब? परिणाम सामने है हमारे नागरिक सरबजीत सिंह को तड़पा तड़पाकर मार डाला। हम आज भी पाकिस्तान पर आंख तरेरने को तैयार नहीं हैं। वही निंदा, भत्र्सना के कायराना गीत गा रहे हैं। ऐसी घटिया और दुर्बल सरकार कि पड़ौसी की किसी भी दुस्साहसिक दरिंदगी पर जवाब देने को तैयार नहीं है।
भारत की यह पहली सरकार है जिसके प्रधानमंत्री का बोल नहीं निकलता। कभी निकलता है तो ऐसा कि आप शर्म के मारे सिर न उठा सकें। वे चीन की खुली गुण्डागर्दी को स्थानीय मसला बता रहे हैं। यहां बताना प्रासंगिक हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिनिधि सभा ने पूरी जानकारी के साथ प्रस्ताव पारित कर सरकार को चीन के खतरनाक इरादों के प्रति चेताया था, लेकिन राष्ट्रवादियों की हर बात को नजरअंदाज करने में ही यह सेक्यूलर बनाम सिकरुलर सरकार अपनी वाहवाही समझती है। संघ ने निरंतर कहा कि चीन चौतरफा भारत की घेराबंदी कर रहा है। हमारी सरकार को उसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। उसने पाकिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका में अपने बंदरगाह बना लिए हैं। गिलगिट बाल्टिस्तान सेक्टर में काराकोरम हाई वे को और चौड़ा कर दिया गया है। उन्होंने हमारी सीमा तक रेल लाइन बिछा दी है। अरुणाचल से जम्मू-कश्मीर तक 4000 किलोमीटर की पूरी सीमा पर चीन ने किसी न किसी रूप में अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाई है। लेकिन हमने 1962 से आज 50 वर्ष बीत जाने पर भी कुछ नहीं किया। तब तो उसने हिन्दी-चीनी का ढोंग भी किया था, लेकिन आज सीधे ललकारा है। व्यापारिक संबंधों की आड़ में उसका खुफिया तंत्र अपनी सरकार को बता चुका है कि भारत में भले ही देश भक्त और जांबाज सेना है, लेकिन उसकी सत्ता की मांद में शेर नहीं गीदड़ रहते हैं। हमारे सेना अध्यक्ष आज कितने ही बेचैन क्यों न हो रहे हों, परन्तु इन गीदड़ों की मांद से तो भभकी भी नहीं निकल रही।
चीन ने एक के बाद एक करके पांच टेण्ट लद्दाख के बेग ओल्टी सेक्टर में लगा लिए हैं। हम तीन-तीन फ्लैग मीटिंग कर चुके हंै, लेकिन चीन हटने को तैयार नहीं है। स्पष्ट है कि उसने ताल ठोक दी है। वह कभी भी कबड्डी-कबड्डी कहता हुआ कहीं तक भी चला आएंगा। वह जानता है कि जिस देश की संसद पर चंद लोग धमाके कर सकते हैं तो वहां क्या नहीं किया जा सकता। इस बात को मजाक भी नहीं समझा जाना चाहिए कि चीन चाहे तो संसद के बाहर बंकर बना ले।
देशवासियों का दम घुटा जा रहा है, सेना छटपटा रही है, लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि हमारे विदेश मंत्री 9 मई को चीन जा रहे हैं। चीन के प्रधानमंत्री ली केछियांग 20 को भारत आ रहे हैं। दोनों ही यात्राओं के एजेंडे में चीनी सैनिकों की यह गुंडई नहीं है। भारत के लिए यह भीषणतम कालखण्ड है। हमने अपने कायराना स्वरूप के दर्शन दुनियां को करा दिए हैं। पाकिस्तान-चीन गठजोड़ की अनदेखी नहीं की जा सकती। हम अकेले पाकिस्तान से थप्पड़ खा रहे हैं तो चीन की कल्पना क्या करें? क्या सचमुच हम इतने कमजोर हैं? यह प्रश्न आज मैंने एक बड़े सुरक्षा अधिकारी से पूछा। उन्होंने कहा नहीं ऐसा कतई नहीं है, चीन पर हथियार ज्यादा हो सकते है, लेकिन जंग सिर्फ हथियारों से नहीं जीती जाती। हमारी सेना के हौसले को तोडऩे का राजनैतिक दुष्कृत्य ही हमें भयाक्रांत कर रहा है। चीन इतना ही मर्द है तो छोटे से जापान से डरकर क्यों लौट आया? दुनियां की कोई ताकत इस्त्राइल पर आंख क्यूं नहीं उठाती? उत्तर कोरिया के उत्तर से महाशक्ति अमेरिका क्यों हिला हुआ है?
कारण सिर्फ एक है। उनके नेतृत्व के पास राष्ट्र निष्ठा है। प्रश्न पूर्णत: अनुत्तरित है कि इन हालातों में एक भारतीय नागरिक करे तो क्या करे? गांधी बड़े विद्वान थे। शायद वे यही कहना चाहते होंगे कि दूसरे गाल पर थप्पड़ खाने के बाद बचता ही क्या है। या तो शर्म से मर जाओ अथवा शत्रु को मार डालो...बस।

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