ज्योतिर्गमय
अंत भला तो सब भला
जन्म उत्सव है पर मृत्यु महोत्सव है। जन्म मिलन है, मृत्यु महामिलन।जन्म शिला को भेदकर फूटने वाली नदी सा प्रवाहमान है और मृत्यु हर प्रवाह को आत्मसात करने वाला सागर। इसलिए इस सत्य को समझने का प्रयास ही साधना है। जो इस प्रवाह के साथ है वही साधक है। जो मृत्यु का मर्म जान जाता है, वह सिद्धों में ही सिद्ध कहा जाता है। जीवन का सत्य है मृत्यु। महान वे लोग होते हैं जो जीवन के विसर्जन के बाद भी जीवित रहते हैं। जप, तप, योग, भजन तथा ध्यान जीवन के उस पक्ष से विरत रहने के प्रयास हैं जो हमें जीवन से बांधता है। जो व्यक्ति जीवन को उसकी विमल रम्यता के साथ जीने की कला जानता है वही योगी है। साधना या प्रयास से ही जीवन की चादर में लगे दागों को धोया जाता है। मृत्यु को संवारने के लिए जीवन को ही संवारना होता है। अकलुष अंत ही मृत्यु को संवारता है। मां के गर्भ में ही जीव की यात्रा का अंत भी निश्चित हो जाता है। आत्मा की अनंतता का प्रमाण है पुनर्जन्म। एक जन्म के जो कर्म, भोग और वासनाएं मृत्यु के क्षण मन में अवशेष रह जाती है वही अगले जन्म का प्रारब्ध बनती है। जो लोग दान, जप, तप, भजन करते हैं उनकी भी मृत्यु संवरती है, जो दूसरों का अहित नहीं करते, सत्य का अनुसरण करते हुए दुखियों की सेवा करते हैं, उनका अंत तो निश्चित रूप से संभलता है। निर्मल मन ही परमात्मा को प्रिय है और जो परमात्मा को प्रिय है, उसे तो अंत समय भी प्रियता ही मिलेगी। हम आंख बंद कर हाथ के माले की गुरिया फेरते रहते हैं पर हमारे अंदर सांसारिक वासनाओं का फेर चलता है। हमारा यह कर्म स्वयं को और सांसारिक लोगों को भले ही सत् कर्म लगे पर परमात्मा को ढोंग ही लगता है। व्यक्ति के जीवन के खाते को जब महाकाल चेक करता है तो उसमें जाली नोटों की भरमार मिलती है और पुण्य का धन कम होने से अंत नहीं संवर पाता। मृत्यु जीवन के कर्म-वर्ष का उसी तरह अंतिम दिन होता है जैसे बैंक के खातों के लिए वित्तीय वर्ष का अंतिम दिन। उस दिन पूरे वर्ष की जमा पूंजी पर जिस तरह हर खाते में बैंक ब्याज लगाती है, उसी तरह मृत्यु भी हमें सत्कर्मो की जमा पूंजी पर ही ब्याज देती है।
सत् कर्म करो मृत्यु संवर जाएगी।