ज्योतिर्गमय
कैसे हो अपनी पहचान
मनुष्य द्वारा प्राप्त ज्ञान का निर्णय उसके बाहरी व्यवहार से नहीं किया जा सकता, न ही नापा जा सकता है।
किसी का व्यवहार ऐसा हो सकता है मानो उसने पूर्ण ज्ञान अर्जित कर लिया हो पर वास्तव में ऐसा नहीं है। इसके विपरीत भी संभव है। जिसके व्यवहार में बिल्कुल परिवर्तन न आया हो, हो सकता है उसने काफी ज्ञान अर्जित किया है।
साधारण व्यक्ति सिर्फ बाहरी व्यवहार देखते हैं, परन्तु बुद्धिमान इसके परे देखता है और चैतन्य (ब्रह्म) की लीला को देख चकित होता है। ज्ञान-अज्ञान मनोभावों को प्रभावित करता है। भीतर से तुम वृक्ष की तरह हो। कुछ ऋतुओं में सूखे हो और कभी फले-फूले हो। ज्ञान-प्राप्ति ऋतुओं से परे है जो सदाबहार नारियल के वृक्ष की तरह पूरे वर्ष फल देता रहता है।
समझ तीन प्रकार की होती है-बुद्धि के स्तर पर, अनुभव के स्तर पर और सत्तात्मक समझ। बौद्धिक समझ 'हां कहती है- वह स्वीकार करती है. अनुभवी समझ महसूस करती है- वह प्रत्यक्ष है। सत्तात्मक समझ अकाट्य है। तर्क के परे। यह तुम्हारा स्वभाव बन जाती है। यदि तुम्हारी समझ केवल बुद्धि के स्तर पर है, तुम सोचते हो कि तुम सब कुछ जानते हो। अधिकतर धर्मशास्त्री इसी श्रेणी में आते हैं।
जब एक अनुभव होता है, तुम उसके बारे में और अधिक जानना चाहते हो और तुम साधक बन जाते हो। सत्तात्मक समझ में अनुभव व बुद्धि, दोनों स्तरों की समझ निहित होती है- फिर भी इन दोनों से परे है। तो, सत्तात्मक समझ को कैसे हासिल करें? ऐसा कोई निर्धारित मार्ग नहीं- जब फल पक जाता है, वह गिर जाता है। जीवन की विभिन्न स्थितियों में, अलग-अलग चेहरे सामने आते हैं।
जब तुम अपने विभिन्न चेहरों का सामना करते हो, तब तुम्हारे भीतर द्वंद्व, दुविधा, उथल-पुथल होती है। पर जैसे-जैसे अपने स्वरूप के समीप आते हो, सभी चेहरे विलीन हो जाते हैं और तुम्हें वास्तविक रूप में छोड़ देते हैं जो 'शून्य है। स्थूल स्तर पर तुम अपनी पहचान करते हो कि तुम कुछ हो। सूक्ष्म स्तर पर स्वयं को शक्ति या किसी देवता, महात्मा या सन्त के अवतार के रूप में देख सकते हो। पर जब तुम इस पहचान से भी परे जाते हो, तब तुम पूर्ण हो, पवित्र हो, ब्रह्म हो-पूर्ण ब्रह्म नारायण।