ज्योतिर्गमय
जीवों में विशिष्ट है मनुष्य
सौरमंडल के सभी ग्रहों में केवल पृथ्वी ही विशेष अधिकारिणी है कि वह इतने विभिन्न प्रकार के जीवों का पोषण करती है और सभी जीवों में मनुष्य विशिष्ट हैं क्योंकि वे ही ज्ञान का पोषण कर सकते हैं।
याद रखो कि तुम ही शांति हो, तुम प्रेम हो, आनन्द हो और सृष्टि-कर्ता के पोषक हो। सभी ज्ञानियों में तुम विशिष्ट हो। केवल तुम अनुभव कर सकते हो कि तुम ही सृष्टि कर्ता के पोषक हो।
देवदूत केवल तुम्हारी ही परम आत्मा की किरणें हैं। जैसे एक अंकुरित बीज से जड़ें, स्कन्ध व पत्तियां निकलती हैं, वैसे ही जब तुम केन्द्रित होते हो, तब तुम्हारे जीवन में देवी-देवताओं का आविर्भाव होता है। वे तुम्हारी सेवा के लिए हैं, तुम्हारे ही बढ़े हुए हाथ हैं। जैसे सूर्य के उज्ज्वल प्रकाश में सभी रंग समाये होते हैं, वैसे ही सभी देवदूत तुम्हारी विशुद्ध आत्मा में विद्यमान हैं. परम-आनन्द उनकी श्वास है, वैराग्य उनका वास। शिव हैं वैराग्य के दाता। शिव वह चेतना है जो आनन्दमयी है, सरल और सर्वव्यापी है। कृष्ण शिव की बाह्य अभिव्यक्ति है और शिव कृष्ण का आन्तरिक मौन।
बुद्धि विभाजन करती है और सम्मिलन भी। संसार में कुछ जीव-जन्तु केवल सम्मिलन करते हैं और कुछ सिर्फ विभाजन। चीटियां सिर्फ सम्मिलन करती हैं- वे वस्तुओं का संग्रह करती हैं और टीला बनाती हैं पर बन्दर सम्मिलन नहीं कर सकते। वे केवल विभाजन करते हैं। उनको एक माला दो, वे तुरंत ही उसके टुकड़े-टुकड़े कर चारों ओर बिखेर देंगे! बंदर सिर्फ विभाजन और परीक्षण कर सकता है। पर मनुष्य में दोनों योग्यताएं हैं।
वह विभाजन (विश्लेषण) करता है और सम्मिलन भी। तुम आपेक्षिक संसार का विश्लेषण करते हो और उस एक की खोज में सम्मिलन करते हो। बुद्धि सत्य की खोज में विभाजन करती है और एक बार मिल जाने पर सत्य सब कुछ जोड़ देता है। जब बुद्धि शांत होती है, तब प्रज्ञा प्रखर होती है। समाधि प्रज्ञा लाती है। एक बुद्धिहीन व्यक्ति, चाहे उसके पास बहुत जानकारी हो, सृजनात्मक नहीं हो सकता। प्रज्ञावान व्यक्ति, ज्यादा जानकारी के बिना भी सृजनात्मक हो सकता है। बुद्धिमता का लक्षण है अनेक में एक को देखना और एक में अनेक को पाना।