ज्योतिर्गमय
जीवन-उपवन, खुशियां फूल
हम मन में यही आशा लिए होते हैं कि हर कोई मेरे कहने के अनुसार चले, मेरी बात सुनें, मेरे जैसा काम करे, मेरे जैसा हो।
पर यह संभव हो सकता है क्या? इसी से क्लेश होता है, तनाव होता है। जो जैसा हो, उसको वैसा ही स्वीकार करें। हमारे चाहने से कोई बदलता तो है नहीं। कोई बदलता है तो अपनी ही रफ्तार से बदलता है। व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति, जो जैसे हैं, उसे वैसे ही स्वीकार करें। स्वीकार नहीं करेंगे तो क्या होगा?
क्लेश बढ़ेगा. एक और बात, यदि अपने से कोई भूल होती है तो आप कहते हैं कि क्या करें, हो गया। ऐसा करने का हमारा कोई उद्देश्य नहीं था। हमने जानबूझ कर तो कुछ नहीं किया। और यदि किसी और ने भूल की हो तो हम क्या कहते हैं? देखो, उसने यह सब जानबूझ कर किया है। स्वयं की भूल को हम माफ कर देते हैं पर किसी और की भूल पर सवार हो जाते हैं। बार-बार अपने मन से यह पूछो कि क्या आप खुश हो? चाहते हो दूसरा आदमी सुधरे?
उनके सुधरने के साथ आप शांत हो जाएंगे? कोई व्यक्ति आपसे माफी मांगे, तो आप सीधे हो जाते हैं। नहीं तो अड़े रहते हैं कि वह आकर माफी मांगे। आपसे भूल हुई या किसी और से, माफी मांगे या न मांगे, क्या फर्क पड़ गया? सब कुछ छोड़कर 'अबÓ में स्थित रहें। ऐसे व्यवहार करें जैसे कुछ हुआ ही नहीं। तब जीवन के बगीचे में प्रेम, प्रसन्नता के फूल खिल जाते हैं। संबंधों के तनाव को ढीला करना हो तो तनिक रुककर सोचो कि तुम्हें क्या चाहिए? मैं कहां, किस ओर मुड़ रहा हूं? क्या इससे लोगों को खुशी मिली है? लोग मेरे पास आकर प्रसन्न हुए हैं? ऐसा तो नहीं कि लोग मेरे पास से जाते हैं तो अपने को दीन-हीन समझकर जाते हैं, क्योंकि मैंने तो सारा समय अपनी प्रशंसा में ही लगा दिया?
लोग महसूस करने लगे कि वे तो कुछ नहीं जानते। हम स्वयं तो निरुत्साहित होते ही हैं, दूसरों के उत्साह पर भी पानी फेर देते हैं। हम यह सब जान-बूझकर नहीं करते, अनजाने में ही होता चला जाता है। शांत बैठें, ध्यान करें, अपने अंदर की गहराई में जाएं तो बाहरी बातें गौण लगने लगेंगी। और जब प्रसन्नचित्त होते हो तब कौन कैसा है या क्या कर रहा है, इन सब बातों में मन फंसता ही नहीं है।