ज्योतिर्गमय
दु:ख और समस्या
दु:ख नकारात्मक मनोभावों और गुणों के प्रति अत्यधिक लगाव को इंगित करता है।
जब तुम अपने को योग्य नहीं समझते तो स्वयं को दोषी ठहरा दु:खी होते हो। जब अपने को बहुत योग्य समझते हो, तब संसार को दोषी ठहरा और दु:खी होते हो। दु:ख का उद्देश्य है आत्मा के पास वापस लाना। आत्मा आनन्दमय है परंतु यह अनुभूति केवल ज्ञान द्वारा संभव है. ज्ञान या सचेतनता दु:ख को आत्मा की ओर ले जाते हैं। ज्ञान का अभाव उसी दु:ख को कई गुना बढ़ा देता है और उस दु:ख का कभी अन्त नहीं होता।
ज्ञान के प्रकाश से तुम दु:ख से परे हो जाते हो। तुम्हारे पास सुन्दर ज्ञान है जिसमें जीवन के सभी रंग हैं- विवेक, हंसी, सेवा, मौन, गाना, नाचना, विनोद, उत्सव, यज्ञ, सहानुभूति और अधिक रंगीन बनाने के लिए शिकायतें, समस्याएं, जटिलताएं व गोलमाल। यदि दु:खी हो तो देखो किसका अभाव है, तप, वैराग्य या शरणागति! तप है वर्तमान क्षण की पूर्ण स्वीकृति, चाहे परिस्थिति सुखद हो या दुखद।
वैराग्य का अर्थ है मुझे कुछ नहीं चाहिए और मैं कुछ नहीं हूं। शरणागति का अर्थ है मैं यहां आपके आनन्द के लिए हूं। यदि असन्तुष्ट हो तो जीवन में इन तीनों की कमी है। जब तुम परिस्थिति को तप मान स्वीकारते हो, तब असन्तुष्ट नहीं रह जाते। वैराग्य की अवस्था में शिकायत नहीं करते और शरणागत हो, तब भी कोई शिकायत नहीं हो सकती।
तप, वैराग्य, शरणागति- मन पवित्र करते हैं, आनन्दित करते हैं। यदि तुम ऐसा स्वेच्छा से न करो तो बाद में हताश होकर करोगे। पहले कहोगे, कुछ नहीं किया जा सकता। आखिरकार निराशा से कहोगे- दूसरा उपाय नहीं। ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसका समाधान नहीं। कोई समस्या है और सोचते हो, उसका समाधान नहीं है तो समझो तुमने उसे स्वीकार कर लिया। तब यह समस्या नहीं रही, यथार्थ बन गई। जैसे समस्या है कि नार्वे का समुद्र बहुत ठंडा है।
निश्चय ही तुम समुद्र को गर्म नहीं कर सकते। यदि इसका समाधान नहीं है और तुम इसे स्वीकार लेते हो तो यह समस्या नहीं रह जाती। समस्या तब तक है जब तक समाधान ढूंढ़ते हो। जिस क्षण अनुभव होता है कि कोई समाधान नहीं है, वह समस्या नहीं रह जाती।