ज्योतिर्गमय
घर्म का प्रवाह
धर्म तो गंगा के सदृश पवित्र प्रवाह है, जिसका स्पर्श अंत:करण में हमेशा ही निर्मलता का शीतल अहसास जगाता है। अपनी छुवन से औरों को निर्मल करने वाला धर्म खुद कभी मलिन कैसे हो सकता है। वह भला भ्रष्ट कैसे हो सकता है? कुछ धर्मान्ध लोगों द्वारा पवित्र स्थलों, धार्मिक स्थलों और धर्म आदि को भ्रष्ट किए जाने की बातें बचकानी लगती हैं। इन्हें सुनकर हमें यह समझ में नहीं आता कि हम हंसें या फिर रोएं। हकीकत में ऐसी बातों से धर्म पर तो कुछ असर नहीं पड़ता। हां इससे कुछ लोगों का अहम और उनकी स्वार्थी भावनाएं जरूर जख्मी होती हैं। स्वधर्म व विधर्म- यह संभव ही नहीं। धर्म में विधर्म जैसा कुछ भी नहीं होता। इस दुनिया में सूर्य एक है, धरती एक है, तो भला धर्म दो, तीन, पांच किस तरह हो सकते हैं? वास्तव में अज्ञान व अधर्म के लिए संख्या की कोई सीमा ही नहीं होती है। जितने चाहो, जितनी तरह के चाहो उतने गिन लीजिए। समूचे विश्व में क्या कोई ऐसा इंसान है, जो सांस में कार्बन डाईआक्साइड लेता हो, कानों से देखता हो और आंखों से सुनता हो। है क्या संसार में कोई ऐसा मनुष्य? यथार्थ में ऐसा संभव ही नहीं।
बाएं हाथ से लिखने वाले, दाएं हाथ से लिखने वाले, ईश्वर में आस्था रखने वाले और ईश्वर में आस्था नहीं रखने वाले मनुष्य तो बहुत ही मिलेंगे, किंतु सांस में प्राणवायु न लेने वाले मनुष्य कहीं नहीं मिलेंगे। शाकाहारी, मांसाहारी, काले और गोरे, मनुष्य सबने देखे होंगे, परंतु वे सबके सब सांस में प्राणवायु ही लेते हैं। इसमें विभिन्नता ढूंढने पर भी नहीं मिलती। इसी प्रकार धर्म भी प्राणवायु की तरह ही है। इसमें जो भेद दिखाई देते हैं, वे केवल अज्ञानता से ही उपजे हैं। वास्तविक रूप में धर्म तो हमें अज्ञानता से उबरने की शिक्षा देता है। दुनिया में जितने भी विवाद, मतभेद, कलह और संघर्ष नजर आ रहे हैं, वे सब अज्ञानता की ही उपज हैं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि अज्ञानता के अंधेरे को सिर्फ ज्ञान के दीपक से ही दूर किया जा सकता है।