ज्योतिर्गमय
जीवन यात्रा
जीवन यात्रा सुखी बने, इसके लिए विश्वास और संयम परम आवश्यक है। विश्वास परमात्मा और उसकी सृष्टि के लिए और संयम स्वजीवन के लिए। संसार में रहते हुए सभी कार्य करते हुए परमेश्वर का सदैव स्मरण करना चाहिए। सांसारिक व्यवहार निभाते हुए परमशक्ति में सदैव विश्वास बना रहना चाहिए। संयम से तात्पर्य आत्मनियंत्रण से है। अपनी इच्छाओं का प्रयासपूर्वक नियमन ही संयम कहलाता है। साधक के लिए तो संयम परम आवश्यक है। काम, क्रोध, लोभ आदि विकार साधकों के मार्ग को भी बाधित कर देते हैं। फिर संसारी जनों को ये घेरे रहें तो इसमें आश्चर्य क्या? इसलिए विवेक से इनका निवारण किया जाना चाहिए। अत्यंत अभ्यास से ही काम, क्रोध और लोभ को दूर रखने का प्रयास करना चाहिए। इस संदर्भ में मन की निगरानी करनी होती है। जरा भी अड़चन सामने आए, तो सचेत हो जाएं। वासनाओं का प्रवाह अत्यंत तेज है।
'योगवशिष्ठ में प्रबल पुरुषार्थ द्वारा वासनाओं पर नियंत्रण का उपदेश दिया गया है। आत्मकल्याण चाहने वालों के लिए इस प्रकार का नियंत्रण अपरिहार्य है। क्षणिक सांसारिक सुख की लालसा में हम दीर्घकालिक परम लाभ की स्थिति को नकार देते हैं। नियंत्रण का अभाव हमें कुमार्ग पर ले जाता है।
अत: राग-द्वेष से मुक्त रहने का निरंतर अभ्यास करना चाहिए। मन में कुविचार आते ही उसे कुचलने का प्रयास किया जाए। कुसंग को पूर्णरूप से त्यागा जाए। त्याग का भाव सदैव बना रहे। सब कुछ ईश्वर प्रदत्ता है। इसलिए त्यागपूर्वक इसका भोग किया जाए। यही अनासक्त भाव है। इसका आश्रय लेकर ही कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। शास्त्रों ने व्यक्ति को सदाचारी रहने के निर्देश दिए हैं। सत्य, अक्रोध, उदारता, दया, करुणा आदि दैवीय गुणों को जीवन में उतारना अपेक्षित है। ये सद्गुण हमारे भय, दुख, निराशा आदि विकारों को दूर करते हैं। इसलिए परमात्मा के मंगलमय विधान में विश्वास रखते हुए धैर्यपूर्वक जीवन के सत्पथ पर आगे बढ़ा जाए। यदि हम ईश्वरीय विधान को स्वीकार कर उत्साहपूर्वक आगे बढ़ते जाएं तो जीवन यात्रा सुमधुर हो जाएगी।