ज्योतिर्गमय
अहंकार
जीवन में व्यक्ति के अनेक मित्र व शत्रु होते हैं। मित्र उसकी सफलता और प्रगति की ओर ले जाने में सहायक होते हैं। वहीं शत्रु उसे अवसान की ओर ले जाते हैं। मित्र और शत्रु केवल व्यक्ति ही नहीं, बल्कि मानवीय भाव भी हो सकते हैं। अहंकार भी मनुष्य के अंदर पनपने वाला एक ऐसा ही शत्रु है। अहंकार के बीज को अपने हृदय में पनपने का अवसर ही नहीं देना चाहिए, क्योंकि अहंकार का वृक्ष फल वाले वृक्षों के स्थान पर विषवृक्ष सिद्ध होता है, जो व्यक्ति को अत्यंत कष्ट और हानि पहुंचाता है। अहंकार से दूसरे व्यक्ति तो बाद में प्रभावित होते हैं, लेकिन सबसे पहले अहंकार से पीडि़त मनुष्य ही इससे प्रभावित होता है। अहंकार व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक परिवेश पर असर डालता है। वह अर्थ के मामले में भी पिछड़ जाता है। अहंकार विनय को समाप्त कर देता है, जबकि अक्सर सामाजिक स्तर पर विनय, धैर्य, मधुर वाणी और ईमानदारी जैसे भाव ही व्यक्ति को सामाजिक स्तर पर ऊपर उठने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। अहंकार से ग्रस्त व्यक्ति अध्यात्म की ओर मुड़ ही नहीं पाता। वह जीवन के उन सुंदर क्षणों से अपरिचित रहता है जो केवल अध्यात्म के माध्यम से प्राप्त होते हैं। अहंकार ने रावण के साम्राज्य तक को नष्ट कर दिया था। अहंकार व्यक्ति की सोचने और कर्म करने की क्षमता पर भी प्रतिकूल असर डालता है। जहां विनयपूर्ण व्यवहार और सबका आदर करने वाला व्यक्ति सहज ही सबका प्रिय बन जाता है। अक्सर व्यक्ति सफल और कामयाब होने पर अहं के नशे में डूब जाता है। ऐसे में सफलता हासिल करने के बाद भी यदि व्यक्ति अध्यात्म से जुड़ा रहे तो वह अहंकार से दूर रह सकता है। श्रीकृष्ण की विनम्रता और सद्गुणों से सभी परिचित हैं। श्रीकृष्ण ने राजसूय यज्ञ में सभी ऋषियों और विद्वानों के चरणों को धोने का कार्य अपने हाथों से किया था। ऐसे ही सद्गुण व्यक्ति के लिए अनिवार्य है ताकि वह अहंकार से दूर रहे। अहंकार एक ऐसा शत्रु है जो अन्य शत्रुओं को जन्म देता है और व्यक्ति की जिंदगी को नर्क बना देता है।