ज्योतिर्गमय

भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार मनुष्य की अंतर्निहित चारित्रिक दुर्बलता है, जो मानव के नैतिक मूल्य को डिगा देती है। यह एक मानसिक समस्या है। भ्रष्टाचार धर्म, संप्रदाय, संस्कृति, सभ्यता, समाज, इतिहास और जाति की सीमाएं भेदकर अपनी व्यापकता का परिचय देता है। वर्तमान समय में शासन, प्रशासन, राजनीति और सामाजिक जीवन भी इससे अछूता नहीं है। इसने असाध्य महामारी का रूप अख्तियार कर लिया है। आचार्य कौटिल्य ने कहा था कि आकाश में रहने वाले पक्षियों की गतिविधि का पता लगाया जा सकता है, किंतु राजकीय धन का अपहरण करने वाले कर्मचारियों की गतिविधि से पार पाना कठिन है। एक राजनीतिक विचारक ने भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय कैंसर की मान्यता प्रदान की है। उनके अनुसार यह विकृत मन-मस्तिष्क की उपज है।
जब समाज भ्रष्ट हो जाता है तो व्यक्ति और संस्थाओं का मानदंड भी प्रभावित होता है। ईमानदारी और सच्चाई के बदले स्वार्थ और भ्रष्टाचार फैलता है। इस परिप्रेक्ष्य में चीन के सक्रिय समाजसेवी नांग-एन-शिन्ह का कहना है कि सामाजिक दुव्र्यवस्था का कारण है कानूनी दोष और व्यक्ति का गलत रास्ते पर चलना। ऐसे समाज में नैतिक मूल्यों का क्षरण होता है और अनैतिक तत्वों का प्रभुत्व स्थापित हो जाता है। यहीं से भ्रष्टाचार का अंकुरण होता है। इस्लामी विद्वान अब्दुल रहमान इबन खाल्दुन ने कहा था कि व्यक्ति जब भोगवादी वृत्ति का अनुकरण करता है तो वह अपनी आय से अधिक प्राप्ति की प्रबल कामना करता है। इसलिए वह मर्यादा की हर सीमाएं लांघ जाना चाहता है और जहां ऐसा प्रयास सफल होता है तो भ्रष्टाचार का प्रारंभ होता है। राजनीतिक विचारकों के अनुसार मनुष्य के लोभ का बढऩा मानसिक द्वंद्व को जन्म देता है और पूंजीवादी औद्योगिक व्यवस्था के कारण भ्रष्टाचार का जन्म होता है। भ्रष्टाचार आमतौर पर सार्वजनिक व्यय में घोटाले के दोष को कहा जाता है। इस तरह यह तीन तरह के अर्थो में प्रयुक्त होता है- रिश्वत, लूट-खसोट और भाई भतीजावाद। ऐसा भ्रष्टाचार एक से अधिक व्यक्तियों के बीच होता है। भ्रष्टाचार पनपने के कई कारण हैं। नेतृत्व क्षमता में कमी से भ्रष्टाचार पनपता है। भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए केवल कानून बनाना ही एकमात्र विकल्प नहीं हो सकता। इसके लिए व्यक्ति के अंदर चारित्रिक सुदृढ़ता, ईमानदारी और साहस का होना अनिवार्य है। 

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