ज्योतिर्गमय
मौलिक प्रसन्नता
मनुष्य के चेहरे की मुस्कान इस बात का प्रमाण नहीं है कि वह अंत:करण से भी उतना ही प्रसन्न है जितना बाहर से दिखाई देता है। प्लास्टिक का कोई आकर्षक फूल या पौधा असली होने का भ्रम तो पैदा कर सकता है, लेकिन मौलिक प्रसन्नता या असली खुशबू देने में किसी भी रूप में समर्थ नहीं हो सकता। चेतनता का अहसास वही पौधा कर सकता है, जिसकी जड़ें प्रकृति से ऊर्जा ग्रहण करती हों। ठीक इसी तरह मनुष्य का अंत:करण जब तक पवित्र नहीं हो जाता तब तक न उसकी वाणी में माधुर्य आ सकता है, न उसे असली खुशी की अनुभूति ही होगी। वह स्वयं से ही नाटक कर ठगा जाता रहता है। ऐसा मनुष्य देव साक्षात्कार में भी असमर्थ रहता है। स्वेट मार्डेन का कहना है कि वही मनुष्य ईश्वर के दर्शन कर सकता है जिसका अंत:करण स्वच्छ व पवित्र है।
अच्छा व निर्मल अंत:करण ही मनुष्य के सच्चे व चरित्रवान होने का प्रमाण है। प्रसिद्ध विचारक जेजे रूसो का मानना है कि जैसे वासनाएं देह की वाणी हैं वैसे ही अंत:करण आत्मा की वाणी है। अंत:करण के परामर्श के बगैर मनुष्य जीवन के सत्यों व रहस्यों को समझने और वास्तविक रूप में स्थायी तौर पर दूसरों को प्रभावित करने में समर्थ नहीं हो सकता। शेक्सपियर का कहना है कि अंतरात्मा ही हमें परमात्मा और बहिर्जगत से पूर्णत: भिज्ञ होने की शक्ति प्रदान करती हैं। इसी बात की पुष्टि विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर अपनी इस बात से करते हैं-एक बार अंत:करण की ओर आंख घुमाओ, तुरंत ही सारा अर्थ समझ में आ जाएगा। वस्तुत: अंत:करण अंतर्मुखी रहस्यमय लोक में प्रवेश करने का प्रमुख तोरण द्वार है। अंत:करण के मलिन होने पर न संसार से सुख की प्राप्ति होती है और न भगवत-प्रेम की ही। स्वामी रामकृष्ण परमहंस का मानना है कि जैसे मैले शीशे पर सूरज की किरणों का प्रतिबिंब नहीं पड़ता उसी प्रकार उन लोगों के हृदय में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिंब नहीं पड़ सकता, जिनका अंत:करण मलिन और अपवित्र है। इसलिए मनुष्य जितना समय, अपने वाह्य शरीर को सजाने-संवारने में गंवाता है, उसका एक चौथाई भी यदि अंत:करण की पवित्रता में लगा दे तो जीवन व संसार स्वयं स्वर्ग की तरह महक उठेगा।