ज्योतिर्गमय
महात्माओं का संग
साधक के निराश मन को ऊपर उठाने तथा उसकी आध्यात्मिक मन: स्थिति को जगाने में महात्माओं की संगति से बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है। ऐसा भी समय आता है जबकि साधक को ध्यान करने में जरा भी उत्साह या प्रेरणा का बोध नहीं होता। बिना किसी स्पष्ट कारण के ही उसका मन सहसा मानो एक अलंघ्य दीवार के सम्मुखीन हो जाता है और सब कुछ शुष्क, नीरस तथा जड़ हो जाता है। कितना भी शास्त्र-पाठ या नाम-जप या मन को एकाग्र करने का बारम्बार प्रयास निरर्थक ही सिद्ध होता है। मन को निकृष्ट विचारों तथा प्रवृत्तियों के दलदल में गिरने से बचाने के लिए उसके सारे प्रयास व्यर्थ सिद्ध होते हैं और इसके फलस्वरूप वह हताशा तथा पराजय के भाव से अभिभूत हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में महात्माओं का संग ही एक मात्र उपाय है। जिस प्रकार लोहे का तपता हुआ टुकड़ा गर्मी बिखेरता रहता है, उसी प्रकार तीव्र आध्यात्मिक मनोभाव से आविष्ट रहने वाले महात्मागण आध्यात्मिक भावों का विकिरण करते रहते हैं और ऐसे म६५हात्माओं के संसर्ग में आने वाले साधक उनसे ऐसे भाव को प्राप्त कर लेते हैं। जैसे बुरे लोगों की संगति संक्रामक होती है और मन में सुप्त पड़ी हुई कु-प्रवृत्तियों को उद्वेलित कर देती है, वैसे ही महात्माओं का संग सहज ही उसमें निहित समस्त दैवी प्रवृत्तियों को जगा देता है।
अस्तु इस सत्संग की प्रभावोंत्पादकता साधक के सम्यक दृष्टिकोण पर निर्भर करती है और जिन तत्वों के सम्यक दृष्टिकोण का निर्माता होता है, वे निम्नलिखित है-प्रथमत: साधक में श्रद्धा होनी चाहिए- अर्थात स्वयं में तथा सत्संग में विश्वास होना चाहिए। श्रद्धा का उल्टा भाव है दोष-दर्शन अर्थात हर चीज के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखना। विनम्रता दूसरा तत्व है। श्रीरामकृष्ण कहते हैं बरसात का पानी टीले पर नहीं, बल्कि नीचे स्थानों में ही एकत्र होता है। इसी प्रकार एक विनम्र हृदय के अंदर ही आध्यात्मिक मनोदशा का निर्माण होता है। कष्ट की अनुभूति करने वाला एक सच्चा व्यक्ति अपनी कठिनाइयों के लिए किसी दूसरों को नहीं, बल्कि स्वयं को ही दोष देता है और केवल ऐसा व्यक्ति ही विनम्र होने के योग्य है। एक बीमार व्यक्ति को तब तक नीरोग नहीं किया जा सकता, जब तक वह स्वयं अपनी रूग्णता से छुटकारा पाने को व्यग्र न हो। सेवा का भाव तीसरा तत्व है। हो सकता है कि कोई साधक महात्माओं की संगति पाना चाहे, पर उन महात्मा को भी साधक की सच्चाई पर संतुष्ट होना चाहिए। सत्संग शारीरिक से कहीं अधिक, मानसिक होता है। इस विचार को बड़ी सुंदरता के साथ रेखांकित करते हुए श्रीरामकृष्ण वचनामृत ग्रंथ के लेखक श्री महेन्द्रनाथ दत्त कहते हैं किसी महात्मा का दर्शन करना ही अपने आप में सत्संग है और महात्मा का दर्शन भी उस समय करना चाहिए जब वे ध्यान में डूबे हों।