ज्योतिर्गमय
ज्ञान और विज्ञान का संतुलन
ज्ञान और विज्ञान के रहस्यों को जानने का और परखने का सदियों से प्रयास किया जा रहा है।
विज्ञान का उपयोग भौतिक सुख-सुविधाओं के संवर्धन अथवा जानकारियों का क्षेत्र बढ़ाने तक सीमित नहीं है, वरन् वास्तविक उपयोग यह है कि हम तथ्य और सत्य को प्रश्रय दें। परंपराएं कितनी ही पुरानी अथवा बहुमान्य क्यों न हों, यदि वे यथार्थता और उपयोगिता की कसौटी पर सही नहीं उतरती तो उन्हें बदलने के लिए सदा तत्पर रहें। विज्ञान न केवल एक प्रक्रिया है, वरन् एक प्रवृत्ति भी है, जिसका फलतार्थ है-साहसपूर्ण विवेचनात्मक एवं तथ्य समर्थित यथार्थवादी दृष्टिकोण।
सत्य की खोज के लिए यह आवश्यक है कि हम तर्क और तथ्य की कसौटी पर प्रत्येक मान्यता और परंपरा को कसें और उनमें से जो खरी उतरती हों, उन्हीं को अंगीकार करें। विज्ञान के इस पक्ष को दर्शन कहा जाता रहा है। वस्तुत: दोनों के समन्वय से ही एक पूर्ण विज्ञान की प्रतिष्ठापना होती है।
भावनात्मक क्षेत्र में भी दर्शन विज्ञान की गतिविधि इसी आधार पर अधिकाधिक कलात्मक और सौंदर्योंपासक बनती जाती है। किन व्यक्तियों और किन पदार्थांे की कितनी उपयोगिता है, इस स्थूल कसौटी की अपेक्षा वह उनकी स्थिति में सन्निहित महान संवेदनाओं की गहराई तक पहुंचने का प्रयास करता है। चेतना का सूक्ष्मतम स्तर है-सत्यम्, शिवम्, सुंदरम्। वस्तुओं में लोभ और व्यक्तियों में मोह का दृष्टिकोण बहुत ही स्थूल है।
जिस संपत्ति को हम अपने अधिकार के अंतर्गत मानते हैं वह हमें प्रिय लगती है और जिन व्यक्तियों को अपने परिवार का मान लेते हैं उनके प्रति आसक्ति बढ़ जाती है। यह अहंता की प्रतिध्वनि मात्र है। इसमें वस्तु के मूल सौंदर्य का दर्शन हो ही नहीं पाता और व्यक्ति लोभ व मोह के जाल में फंसा हुआ बाल कौतुकों में उलझा रहता है।
सौंदर्य वस्तुओं की सज्जा, दृश्यों की शोभा एवं व्यक्तियों के अंग गठन पर निर्भर नहीं है, वह तो प्रकृति की मृदुल एवं आत्मा की कोमलकांत संवेदनशीलता को अपने अंतरंग चित्रपट पर कलात्मक तूलिका के साथ चित्रण कर सकने की कलाकारिता है. कला और संवेदना को उभारता है ज्ञान, और ज्ञान को मूर्त रूप देता है विज्ञान. विज्ञान के बिना ज्ञान अधूरा है और ज्ञान के बिना विज्ञान. दोनों के समन्वय से ही प्रकृति संचालित होती है. जीवन को संतुलित करना है तो ज्ञान और विज्ञान दोनों को साथ लेकर ही चलना होगा.