ज्योतिर्गमय
आस्था का सूरज
आस्थाशील व्यक्ति अंधकार को चीरता हुआ स्वयं प्रकाश बन जाता है। जैसे सूर्य का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए मशाल की जरूरत नहीं रहती, वैसे ही आस्थाशील व्यक्ति के लिए कुछ भी असंभव नहीं रहता। उसके जीवन में बुद्धि और हृदय के बीच होने वाला संघर्ष मिट जाता है, क्योंकि उसकी सारी क्रियाएं आस्था यानी हृदय से शासित और अनुप्राणित होती हैं।
साधक की सच्ची संपत्ति श्रद्धा है। श्रद्धा का अर्थ है-सत्य को धारण करना। सत्य के प्रति आस्थाशील व्यक्ति ही श्रद्धाशील बन सकता है। श्रद्धा और आस्था के बिना अहंकार पर विजय नहीं पाई जा सकती और न ही जीवन-यात्रा में आने वाली बाधाओं का मुकाबला किया जा सकता है। जिस साधक की श्रद्धा डांवाडोल होती है, वह किसी भी सिद्धांत या नियम के प्रति सजग नहीं रह सकता। आस्थाबल के सहारे व्यक्ति हर अंधेरी घाटी को पार कर लेता है।
महात्मा गांधी ने कहा था-'आस्था तर्क से परे है। जब चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा दिखाई पड़ता है और मनुष्य की बुद्धि काम करना बन्द कर देती है, उस समय आस्था की ज्योति प्रखर रूप में चमकती है और हमारी मदद को आती है। साधना के क्षेत्र में व्यक्तिगत आस्था का निर्माण बहुत अपेक्षित है। आस्था एक कल्पवृक्ष है। इसकी साधना से व्यक्ति अनंत आनंद को प्राप्त कर सकता है।
भीष्म पितामह अपने आस्था-बल से सारा शरीर बाणों से छिद जाने पर भी शैय्या पर चेतनावस्था में रहे। लोग कहते हैं-आज कलियुग है, इसलिए कल्पवृक्ष मनुष्य लोक से स्वर्ग लोक चला गया है। यह बात वही व्यक्ति कह सकता है, जिसकी आस्था-बल हीन है, दुर्बल है। मनुष्य के पास चिंतामणि, कामधेनु और कल्पवृक्ष समस्त सामग्री है, अगर मनुष्य अपनी ऊर्जा का सही रूप में उपयोग करे तो हर कामना की पूर्ति कर सकता है। बहुत जरूरी है पुन: जागने की, खोया विश्वास पाने की, देश की चरमराती आस्थाओं को सुदृढ़ बनाने की। नए सोच के साथ नए रास्तों पर फिर एक-बार उस सफर की शुरुआत करें जिसकी गतिशीलता जीवन-मूल्यों को फौलादी सुरक्षा दे सके।