ज्योतिर्गमय
त्याग और प्रेम का महत्व
एक राजा अपने मंत्री पर पूर्ण विश्वास रखता था, परंतु वह मंत्री ऐसा विश्वासघाती था कि राजा के प्रति अपने धर्म को छोड़कर दूसरे लोगों से मिल जाता और राजा की ऑंखों में धूल झोंककर अन्य लोगों से धन ले आता और मौज करता। ऐसा करते-करते उसे अपने धर्म-कर्म का ध्यान न रहा और स्वार्थ-लिप्सा में फँस गया।
राजा को कुछ संदेह हुआ तो उसने मंत्री से पूछा कि तुम्हें राज दरबार से जितने रुपये मिलते हैं, उससे अधिक खर्च किस प्रकार करते हो? तो वह कह देता मुझे रिश्तेदारों के यहां कुछ भेंट पूजा प्राप्त हो जाती है। वास्तविकता का पता लगाने पर पता चला कि मंत्री अपने स्वामी के साथ विश्वासघात करके अनीतिपूर्वक धन प्राप्त करता है, तो उसे बड़ा दु:ख हुआ।
मंत्री को सुधार करने की इच्छा से राजा ने कुछ दंश दिया, परंतु वह मूर्ख भला कब मानने वाला था। उसने दंड से सुधरने की बजाय बदला लेने का निश्चय किया और तरह-तरह से राजा को बदनाम करने लगा। मंत्री सोचता था कि मेरे दूषित कर्मों का भंडाफोड़ होगा तो मुझे दंड मिलेगा, इसलिए क्यों नहीं राजा से पहले ही बदला ले लूं और इसे सब लोगों की निगाह में गिराकर अशक्त कर दूं।
परिस्थिति बड़ी विषम हो गई। राजा की इच्छा मंत्री को सुधारने की थी, पर वह नहीं चाहता था कि वह दु:ख भोगे, दर-दर मारा फिरे। वह चाहता था कि यह अब भी सुधर जाए और अपने गौरव को पूर्ववत बनाए रहे। किंतु मंत्री तो विषधर सर्प की तरह उलटी ही चाल चल रहा था। दोनों के मन, दिन-दिन अधिक फटते जाते थे। अशांति और कलह का वेग प्रचंड होता जा रहा था। एक बना हुआ राज शासन नष्ट होने के लिए चौराहे पर आ खड़ा था।
राजगुरु को पता चला कि मेरा शिष्य अमुक राजा का राय, गृह-कलह के कारण नष्ट हो जाएगा। उन्होंने योग-दृष्टि से सारी घटना का सूक्ष्म निरीक्षण किया और प्रण किया कि इस भयंकर बरबादी को रोकूंगा। गुरु समझते थे कि झगड़ा दोनों की भूल से होता है, यदि एक पक्ष को भी सुधार दिया जाए तो कलह उसी दिन समाप्त हो सकती है। एक हाथ से ताली कहीं भी बजती नहीं देखी गई।
गुरुजी राजा के पास पहुंचे। वे जानते थे कि अपराध मंत्री का है और राजा निर्दोष है, फिर भी उन्हें शास्त्रज्ञान से यह अनुभव था कि बुद्धिमान को ही झुकाया जा सकता है। उन्होंने राजा को समझाया कि दंड देने की नीति बाहर के नौकर-चाकरों पर चलानी चाहिए। मंत्री से कलह होने में हर प्रकार आपकी ही हानि है। यदि इस राज व्यवस्था को सुरक्षित रखना है तो आपको ही अधिक त्याग करना पड़ेगा।
राजा बड़ा सुशील और साधुवृत्ति का था। उसने गुरु की आज्ञा मानकर अधिकाधिक त्याग का आदर्श स्वीकार कर लिया। उसने राज का सारा भार मंत्री को सौंप दिया, अपना सारा विरोध छोड़ दिया, उसने दुष्ट आचरणों पर दृष्टि रखना छोड़ दिया, यहां तक कि मन में से घृणा और विरोध के भाव भी निकाल दिए। राजा ने सोच लिया कि हर प्राणी अपने कर्म का स्वतंत्र रूप से जिम्मेदार है, मंत्री कुकर्म करता है तो मैं क्यों अपना जी जलाऊँ? राजा पहले ही बड़ा विनम्र था, इन त्याग भावनाओं को स्वीकार करते ही वह और भी अधिक विनम्र बन गया। पहले उसे मोह था, अब प्रेम करना सीख लिया।